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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 173 रूपादिज्ञानानामेतन्न स्यात्? करणज्ञानत्वाविशेषात् / संतानांतरकरणज्ञानैर्व्यभिचार इति चेत्, तवापि संतानांतरविकल्पविज्ञानैः कुतो न व्यभिचारः? एकसामग्र्यधीनत्वे सतीति विशेषणाच्चेत्, समानमन्यत्र / तथाक्षमनोज्ञानानामेकसंतानत्वमेकसामग्र्यधीनत्वे सति स्वसंविदितत्वादितिकुतस्तेषां भिन्नसंतानत्वं, येन रूपादिज्ञानपंचकस्य युगपद्धाविनः पूर्वैकविज्ञानोपादानत्वं न सिद्धयेत् / तत्सिद्धौ च तस्यैकसंतानात्मकत्वादेकत्वमिति सूक्तं दूषणं नीलाद्याभासमेकं चित्रज्ञानमिच्छता रूपादिज्ञानपंचकमप्येकं चित्रज्ञानं प्रसज्येतेति। बौद्ध कहता है कि इन्द्रियजन्यत्व हेतु संतानान्तरकरण ज्ञान के द्वारा व्यभिचारी है। अर्थात् सन्तानान्तर होने वाले ज्ञान में इन्द्रियजन्यत्व है- उसमें पूर्व का ज्ञान कारण है। जैनाचार्य कहते हैं किऐसा कहने पर बौद्धों के द्वारा स्वीकृत विकल्प ज्ञान के द्वारा भी व्यभिचार क्यों नहीं आयेगा, अवश्य आयेगा। अर्थात् देवदत्त, आदि भिन्न-भिन्न चित्तों में देखने-सूंघने के अनेक विकल्पात्मक ज्ञान होते हैं अत: बौद्धों का एकसंतानत्व हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभास है; क्योंकि भिन्न-भिन्न संतानों में अनेक विकल्पात्मक ज्ञान हो रहे हैं। 'यह विकल्पज्ञान एक सामग्री के आधीन है' ‘एक सामग्रीजन्य है' अतः एक सामग्रीजन्य विशेषण लगा देने से एकसंतानत्व में व्यभिचार दोष नहीं आयेगा- ऐसा बौद्धों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि यह एक सामग्रीजन्य विशेषण दोनों (ज्ञान पंचक और चित्रज्ञान) में समान ही है। दोनों ही ज्ञान बाह्य इन्द्रियसंयोग, अभ्यन्तर मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होते हैं। तथा- पाँच इन्द्रियों और मन से उत्पन्न ज्ञानों के भी एक सामग्री आधीनत्व होने पर एकसंतानत्व मानना चाहिए। क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान और मानस ज्ञानों की भिन्न संतान मान भी कैसे सकते हैं। क्योंकि इन्द्रियजन्य ज्ञान और मनोजन्य ज्ञान एक सामग्री के आधीन होते हुए स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के विषय हैं। जिससे एक साथ होने वाले रूपादिक ज्ञानपंचक के पूर्व एक ज्ञान का उपादानत्व सिद्ध नहीं होता हो। अर्थात् जैसे इन्द्रिय और मानस प्रत्यक्ष के एकसंतानत्व सिद्ध है- उसी प्रकार रूपादि ज्ञानपंचक के एकसंतानत्व सिद्ध है। इसलिए पूर्व समयवर्ती कोई भी एक रासन प्रत्यक्ष या घ्राण प्रत्यक्ष उत्तरकाल में होने वाले स्पर्शन प्रत्यक्ष आदि का उपादान कारण क्यों नहीं सिद्ध होता है, अवश्य ही सिद्ध होता तथा परस्पर उपादानत्व सिद्ध हो जाने पर उसके एकसंतानत्व होने से एकत्व सिद्ध हो जाता है। अर्थात् कथंचित् द्रव्यदृष्टि से रूप रस आदि पाँचों ज्ञानों में एकत्व सिद्ध होता है। इस प्रकार नीलादिक आभासों को चित्रज्ञान स्वीकार करने पर बौद्धों के पूड़ी खाते समय होने वाले रूप आदि पाँच ज्ञानों को भी एक चित्रज्ञान बनने का प्रसंग आयेगा, यह दूषण ठीक ही है। अर्थात् नीलादि आकारों को चित्रज्ञान मानने वालों को रूपादि पंचक ज्ञान को चित्रज्ञान स्वीकार करना चाहिए।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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