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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१७४ चित्राद्वैताश्रयाच्चित्रं तदप्यस्त्विति चेन्न वै। चित्रमद्वैतमित्येतदविरुद्धं विभाव्यते // 166 / / चित्रं ह्यनेकाकारमुच्यते तत्कथमेकं नाम? विरोधात् / तस्य जात्यंतरत्वेन विरोधाभावभाषणे। तथैवात्मा सपर्यायैरनंतैरविरोधभाक् // 167 / / नै नाप्यनेकं। किं तर्हि? चित्रं चित्रमेव, तस्य जात्यंतरत्वादेकत्वानेकत्वाभ्यामित्यविरुद्धं चित्राद्वैतसंवेदनमात्रं बहिरर्थशून्यमित्युपगमे, पुंसि जात्यंतरे को विरोधः? सोऽपि हि नैक एव संसार में चित्रज्ञान रूप ही एक पदार्थ है और कुछ नहीं है, अतः चित्राद्वैत के आश्रय से रूपादिक पाँच ज्ञान भी मिलकर एक चित्रज्ञान कहलाते हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं है (अर्थात्चित्रज्ञान की ही एकान्त रूप अवधारणा करना उचित नहीं है)। क्योंकि इस प्रकार कथन करने में विरोध आता है कि चित्र और अद्वैत ये दोनों परस्पर विरोधी नहीं हैं अर्थात् चित्र अद्वैत कैसे हो सकता है॥१६६॥ अनेक आकारों को ही चित्रज्ञान कहते हैं, इसलिए चित्रज्ञान और अद्वैत दोनों एक कैसे हो सकते हैं- क्योंकि चित्र और अद्वैत में परस्पर विरोध आता है। चित्र न तो एक है और न अनेक है अपितु एक और अनेक से न्यारा तीसरी ही जातिवाला पदार्थ है अतः पृथक् जात्यन्तर होने से एकपने और चित्रपने में विरोध का अभाव है। ऐसा बौद्धों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि उसी प्रकार आत्मा भी स्वकीय अनन्त पर्यायों के साथ अविरोध को धारण करने वाला है। अर्थात् अनन्त पर्यायों के साथ एक आत्मा के रहने में कोई विरोध नहीं है। अर्थात् न आत्मा एक स्वरूप ही है, न सर्वथा अनेक है, परन्तु कथंचित् जात्यन्तर एकानेक है। __ स्वकीय अनन्त पर्यायों में रहने वाली आत्मा द्रव्य दृष्टि से एक है। नरक में नरक पर्यायों को धारण कर दुःख का अनुभव करने वाली आत्मा एक ही है। पर्याय दृष्टि से भिन्न है, नरक में नारकी थी मनुष्य पर्याय में मानव है॥१६७॥ (बौद्ध) चित्रज्ञान न तो एक है और न अनेक है। शंका- चित्रज्ञान का स्वरूप क्या है? उत्तरचित्रज्ञान चित्र स्वरूप ही है। एक और अनेक से जात्यन्तर (भिन्न जाति) स्वभाव वाला होने से वह चित्रज्ञान है। अतः बाह्य अर्थ से शून्य चित्राद्वैत का संवेदन होना एकत्व अनेकत्व से अविरुद्ध है। इस प्रकार चित्राद्वैत को जात्यन्तर स्वीकार करने पर जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार आत्मा को जात्यन्तर स्वीकार करने में क्या विरोध है? वह आत्मा भी निश्चय से न एक है और न अनेक है, अपितु एकानेक से भिन्न जाति वाला है। शंका- वह जात्यन्तर क्या है? उत्तर- कथंचित् एक है और कथंचित् अनेक है। अर्थात् द्रव्य दृष्टि से आत्मा एक है और पर्याय दृष्टि से अनेक है। अतः एक और अनेक से
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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