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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 172 नियमः संभाव्यतां / तस्य तद्वासनाप्रबोधकत्वादिति चेत्, कुतस्तदेव तस्याः प्रबोधकं? तथा दृष्टत्वादिति चेन्न, अन्यथा दर्शनात् / प्रागपि हि रूपादिज्ञानपंचकोत्पत्तेरहमस्य द्रष्टा भविष्यामीत्याद्यनुसंधानविकल्पो दृष्टः। सत्यं दृष्टः, स तु भविष्यदर्शनाद्यनुसंधानवासनात एव / तत्प्रबोधकश दर्शनाघभिमुखीभावो न तु रूपादिज्ञानपंचकमिति तदुत्पत्ते: पूर्वमन्यादृशानुसंधानदर्शनात्तासां नियमप्रतिनियतानुसंधानानां प्रतिनियतवासनाभिर्जन्यत्वात्तासांच प्रतिनियतप्रबोधकप्रत्ययायत्तप्रबोधत्वादिति चेत् / कथमेवमेकत्र पुरुषे नानानुसंधानसंताना न स्युः? प्रतिनियतत्वेऽप्यनुसंधानानामेक संतानत्वं विकल्पज्ञानत्वाविशेषादिति चेत् / किमेवं जैनाचार्य पूछते हैं कि वे पाँच ज्ञान ही अनुसंधान कराने वाली उस वासना के प्रबोधक क्यों हैं? वे ही वासना को जाग्रत क्यों करते हैं? चाहे कोई भी ज्ञान उस वासना को क्यों नहीं जगा देता? उत्तर- बौद्ध कहते हैं कि उस प्रकार का कार्य होते हुए देखा जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं है क्योंकि अन्य प्रकार से भी कार्य देखा जाता है। क्योंकि रूपादि पाँच ज्ञानों की उत्पत्ति के पूर्व 'मैं इस पदार्थ का द्रष्टा होऊंगा' इत्यादि रूप से प्रत्यभिज्ञान रूप विकल्प होना देखा जाता है। बौद्ध कहते हैं कि रूप आदिक पाँच ज्ञानों के पूर्व अनुसंधान होना आपने देखा है, वह सत्य है। परन्तु वह विकल्प ज्ञान तो भविष्यकाल में देखने, सूंघने आदि अनुसंधान को उत्पन्न करने वाली दूसरी वासनाओं से ही उत्पन्न हुआ है। रूप आदि के ज्ञान उन वासनाओं में प्रबोधक नहीं हैं। उन वासनाओं का जानने वाला कारण तो देखने, सूंघने, सुनने आदि के लिए सम्मुख होनापन है। परन्तु रूपादि ज्ञानपंचक उस अनुसंधान (प्रत्यभिज्ञान) के जनक नहीं हैं। क्योंकि ज्ञानपंचक के पूर्व भी अन्य प्रत्यभिज्ञान देखे जाते हैं। उन अनुसंधानों (प्रत्यभिज्ञानों) को रूप, रस आदि में ही नियमित करना पूर्व की नियत हुई वासनाओं के द्वारा ही जन्य हैं। और वे पूर्व की वासनाएँ उनके जगाने वाले नियमित ज्ञानों के वशीभूत होकर प्रबुद्ध हो जाती हैं। इस प्रकार मिथ्याज्ञान और वासना तथा उनके प्रत्यभिज्ञानों के प्रबुद्ध होने की नियत व्यवस्था है। ___बौद्धों के इस कथन का खण्डन करने के लिए जैनाचार्य कहते हैं- बौद्धों के इस कथन से एक ही आत्मा में अनुसंधानों की अनेक संतानें क्यों नहीं होंगी। अर्थात् जिसने पूर्व में पदार्थों को प्रत्यक्ष जाना है, उसी को स्मरण होगा, उसी को प्रत्यभिज्ञान होगा, अन्य को नहीं हो सकता। अतः सिद्ध हुआ कि आत्मा अनादि अनन्त है। देखने, सूंघने आदि के अनुसंधान नियत होने पर भी अनुसंधानों का एकसंतानत्व विकल्प ज्ञान ही है। अर्थात् सूंघने, देखने आदि का अनुव्यवसाय करने वाले प्रत्यभिज्ञान भी सभी एक से विकल्प ज्ञान हैं। इनमें कोई अन्तर नहीं हैं। अर्थात् जैसे स्वप्नज्ञान भ्रान्त है, विकल्प है उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान भी विकल्प स्वरूप है। इन दोनों में कोई अन्तर नहीं है। इस प्रकार बौद्ध के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि यदि अनुसंधान को एकसन्तान मानोगे तो पूड़ी खाते समय होने वाले ज्ञानपंचक में भी एकसंतानत्व क्यों नहीं होगा। क्योंकि दोनों ही ज्ञानों में करण (इन्द्रिय) ज्ञानत्व की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है अर्थात् दोनों ही ज्ञान इन्द्रियजन्य
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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