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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 166 सिद्ध्येत् / कथमेकः पुरुषः क्रमेणानंतान् पर्यायान् व्याप्नोति? न तावदेकेनः स्वभावेन सर्वेषामेकरूपतापत्तेः। नानास्वरूपैर्व्याप्तानां जलानलादीनां नानात्वप्रसिद्धेरन्यथानुपपत्तेः / सत्ताधे कस्वभावेन व्याप्तानामर्थानां नानात्वदर्शनात् पुरुषत्वैक स्वभावेन व्याप्तानामप्यनंतपर्यायाणां नानात्वमविरुद्धमिति चायुक्तं, नानार्थव्यापिन: सत्त्वादेरेकस्वभावत्वानवस्थितः। कथमन्यथैकस्वभावव्याप्तं किंचिदेकं सिद्धयेत् / यदि पुनर्नानास्वभावैः पुमाननंतपर्यायान् व्याप्नुयात्तदा ततः स्वभावानामभेदे तस्य नानात्वं, तेषां आत्मा व्यापक है (बौद्ध) शंका- एक ही पुरुष (आत्मा) क्रम से होने वाली अनन्त पर्यायों को कैसे व्याप्त कर लेता है? एक स्वभाव के द्वारा आत्मा क्रमसे होने वाली अनन्त पर्यायों को व्याप्त कर लेता है- ऐसा भी नहीं कह सकते? क्योंकि एक स्वभाव के द्वारा आत्मा का अनेक पर्यायों में व्यापक होना मानने पर सम्पूर्ण पर्यायों के एकत्व की आपत्ति का प्रसंग आता है। अर्थात् एक स्वभाव से व्याप्त पदार्थ एक स्वभाव वाले ही होते हैं। परन्तु नाना स्वभावों से व्याप्त जल, अग्नि आदि के नानात्व प्रसिद्ध ही है। अन्यथा (जलादि को नाना स्वभावों से व्याप्त नहीं मानेंगे तो) जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी में भिन्नता (भिन्नभिन्न द्रव्यता) की सिद्धि नहीं हो सकती। समाधान : सत्ता, द्रव्यत्व आदि एक स्वभाव से व्याप्त होने पर भी पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु इन चारों तत्त्वों के जैसे नानापना दृष्टिगोचर होता है वैसे ही पुरुष स्वरूप (आत्मपना या चेतनपना) एक स्वभाव से व्याप्त होने पर भी अनन्त ज्ञान, सुख आदि पर्यायों के भी नानापने में कोई विरोध नहीं है। बौद्ध कहते हैं कि ऐसा कहना भी युक्त नहीं है। क्योंकि अनेक अर्थों में व्यापक रूप से रहने वाले सत्त्व, द्रव्यत्व आदि के एकस्वभावपना व्यवस्थित रूप से सिद्ध नहीं है। वे सत्त्व आदि अनेक स्वभाव वाले होकर ही अनेक पदार्थों में रहते हैं। यदि सत्त्व आदि को अनेक स्वभाव न मान कर एकस्वभाव माना जायेगा तो एकस्वभाव से व्याप्त हो रहा कोई एक पदार्थ ही कैसे सिद्ध होगा? अर्थात् नहीं होगा। अतः नित्य और एकसत्ता जाति अनेक में नहीं रह सकती। यदि स्याद्वादी, अनेक स्वभावों के द्वारा आत्मा अनेक पर्यायों को व्याप्त करता है, ऐसा मानते हैं तो (बौद्ध पूछते हैं) वे अनेक स्वभाव आत्मा से भिन्न हैं कि अभिन्न हैं? यदि अनेक स्वभावों को आत्मा से अभिन्न मानोगे तो अनेक स्वभावों के साथ तादात्म्य होने से आत्मा भी अनेक हो जायेगी। अथवा आत्मा के साथ एकत्व होने से वे स्वभाव भी नानारूप न रहकर एक हो जायेंगे।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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