SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 165 - यथैव वर्तमानार्थग्राहकत्वेऽपि संविदः। सर्वसांप्रतिकार्थानां वेदकत्वं न बुद्ध्यते // 158 // तथैवानागतातीतपर्यायैकत्ववेदिका। वित्तिर्नानादिपर्यंतपर्यायैकत्वगोचरा // 159 // यथा वर्तमानार्थज्ञानावरणक्षयोपशमाद्वर्तमानार्थस्यैव परिच्छे दकमक्षज्ञानं तथा कतिपयातीतानागतपर्यायैकत्वज्ञानावरणक्षयोपशमात्तावदतीतानागतपर्यायैकत्वस्यैव ग्राहक प्रत्यभिज्ञानमिति युक्तमुत्पश्यामः / तस्माच्चैकसंतानवर्तिघटकपालादिमृत्पर्यायाणामन्वयित्वसिद्धेर्नोदाहरणस्य साध्यसाधनविकलत्वं, येन चित्तक्षणसंतानव्याप्येकोऽन्वितः पुमान्न ____ उन दोनों में अन्तर के नहीं होने पर भी ज्ञान के विशिष्ट क्षयोपशम से होने वाली योग्यता के विशेष से प्रत्यक्ष ज्ञान वर्तमानाकार (वर्तमान में सम्मुख रहने वाले पदार्थ के आकार रूप) पर्याय को ही विषय करता है। सर्वदेशस्थित पदार्थों की वर्तमानकालीन पर्यायों को विषय नहीं करता है- इस प्रकार बौद्धों के कहने पर अब जैनाचार्य कहते हैं- जिस प्रकार सांव्यवहारिक प्रत्यक्षज्ञान के वर्तमानकालीन पदार्थों की ग्राहकता (ग्रहण करने की शक्ति) होने पर भी सम्पूर्ण देशों में स्थित वर्तमानकालीन सर्व पदार्थों का वेदकत्व (जानना) नहीं समझा जाता है अर्थात् वह प्रत्यक्षज्ञान सर्व देशों में स्थित वर्तमानकालीन पदार्थों को नहीं जानता है; उसी प्रकार भविष्यत् और भूतकालीन कतिपय पर्यायों के एकत्व को जानने वाला प्रत्यभिज्ञान रूप मतिज्ञान अनादि अनन्त कालीन पर्यायों के एकत्व को विषय नहीं करता है।।१५८-१५९॥ - जिस प्रकार वर्तमान पदार्थों के ज्ञान के आच्छादक मतिज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से वर्तमानकालीन कतिपय पदार्थों को जानने वाला इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान उत्पन्न होता है उसी प्रकार कतिपय (कुछ) अतीत और अनागत पर्यायों में रहने वाले एकत्व ज्ञान के अवरोधक ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न प्रत्यभिज्ञान भी उतनी ही अतीत और अनागत पर्यायों में स्थित एकत्व का ही ग्राहक है। बात को हम युक्तिसहित देख रहे हैं; अनुभव कर रहे हैं। अर्थात् यह अनुभव से सिद्ध है- प्रत्यभिज्ञान प्रामाणिक ज्ञान है। इस प्रकार एकसंतानवर्ती घट, कपाल आदि मिट्टी की पर्यायों में भी मिट्टी रूप से अन्वयता सिद्ध हो जाने पर उदाहरण साध्य-साधन विकल नहीं है, जिससे कि चित्त (आत्मा) के ज्ञान पर्यायों की संतान में व्यापक रूप से अन्वययुक्त रहने वाले एक पुमान् (आत्मा) की सिद्धि नहीं होती हो? अपितु एक अनादिनिधन आत्मा की सिद्धि होती ही है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy