SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१६७ चैकत्वमनुषज्येत; भेदे संबंधासिद्धेळपदेशानुपपत्तिः। संबंधकल्पनायां किमेकेन स्वभावेन पुमान् स्वस्वभावैः संबध्यते नानास्वभावैर्वा? प्रथमकल्पनायां सर्वस्वभावानामेकतापत्तिः, द्वितीयकल्पनायां ततः स्वभावानामभेदे च स एव दोषः, अनिवृत्तश्च पर्यनुयोगः, इत्यनवस्थानात्, कुतोऽनंतपर्यायवृत्तिरात्मा व्यवतिष्ठतेति केचित् / तेऽपि दूषणाभासवादिनः / कथम् क्रमतोऽनंतपर्यायानेको व्याप्नोति ना सकृत्। यथा नानाविधाकारांशित्रज्ञानमनंशकम् // 160 // चित्रज्ञानमनंशमेकं युगपन्नानाकारान् व्याप्नोतीति स्वयमुपनयन् क्रमतोऽनंतपर्यायान् व्याप्नुवन्तमात्मानं प्रतिक्षिपतीति कथं मध्यस्थ:? तत्र समाधानाक्षेपयोः समानत्वात् / नन्वनेकोऽपि चित्रज्ञानाकारोऽशक्यविवेचनत्वादेको युक्त इति चेत् यदि अनेक स्वभावों से आत्मा को भिन्न मानोगे तो आत्मा और स्वभावों में सम्बन्ध ही सिद्ध नहीं होगा और सम्बन्ध सिद्ध न होने से “ये आत्मा के स्वभाव हैं' इस प्रकार की लोक-व्यवहार की व्यवस्था नहीं हो सकेगी। अतः सम्बन्ध वाचक षष्ठी विभक्ति का प्रयोग नहीं हो सकता। स्वभावों के साथ आत्मा के सम्बन्ध की कल्पना करने पर प्रश्न उठता है कि आत्मा अपने अनेक स्वभावों के द्वारा एक स्वभाव से सम्बन्धित होता है कि नाना स्वभावों के साथ नाना स्वभाव से सम्बन्धित होता है? प्रथम कल्पना में यदि नाना स्वभावों का सम्बन्ध करके एकरूप परिणत होता है, ऐसा मानते हैं तो आत्मा के नाना स्वभावों को पूर्व के समान एकत्व का प्रसंग आयेगा। तथा द्वितीय पक्ष के अनुसार यदि नाना स्वभावों के साथ आत्मा में सम्बन्ध मानोगे तो स्वभाव के अनेक होने से आत्मा के भी अनेकत्व की सिद्धि होगी। अतः स्वभाव के साथ सम्बन्ध की कल्पना करने पर पूर्वोक्त दोष आते ही जायेंगे और प्रश्न की निवृत्ति नहीं होगी। तथा अनवस्था दोष भी आयेगा। ऐसी दशा में स्याद्वाद मत में स्वीकृत अनन्त पर्यायों में अन्वय रूप से व्यापक एक आत्मा कैसे व्यवस्थित हो सकती है? इस प्रकार बौद्ध के कथन को सुनकर जैनाचार्य शंकाओं का प्रत्युत्तर देते हैं कि ऐसा कहने वाले वे बौद्ध दूषणाभासी हैं? शंका- वे दूषणाभासी कैसे हैं? उत्तर- जिस प्रकार बौद्ध दर्शन में प्रकारता, विशेष्यता आधेयता, ग्राह्यता, ग्राहकता आदि अंशों (या विकल्पों) से रहित भी एक चित्रज्ञान एक समय में नीलाकार, पीताकार आदि नाना आकारों को एक समय में व्याप्त कर लेता है, उसी प्रकार एक ही आत्मा क्रमशः होने वाली अनन्त पर्यायों को एक ही बार में व्याप्त कर लेता है। अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्तमानकालीन अनंत पर्यायों में आत्मा अनादि काल से अन्वय रूप से व्याप्त है, ऐसा सिद्ध होता ही है // 160 // .. धर्म-धर्मी भाव से रहित निरंश एक चित्रज्ञान एक समय में अनेक आकारों को व्याप्त करता है- ऐसा बौद्ध स्वयं स्वीकार करते हैं किन्तु क्रम से होने वाली अनन्त पर्यायों में व्यापक आत्मा का खण्डन करते हैंअतः वे बौद्ध मध्यस्थ (पक्षपात रहित) कैसे हो सकते हैं? अर्थात् नहीं क्योंकि चित्रज्ञान में ज्ञान और आत्मा दोनों में समाधान की अपेक्षा समानता है। अर्थात् चित्रज्ञान को एक साथ अनेक आकारों को व्याप्त करने वाला सिद्ध करेंगे तो आत्मा भी एक साथ अनन्त पर्यायों में व्याप्त होती है, यह सिद्ध हो जायेगा। और आत्मा के अन्वय रूप से अनेक पर्यायों में रहने का खण्डन करेंगे तो चित्रज्ञान का भी खण्डन होगा।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy