SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 195
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१६२ तदेवेदमिति ज्ञानादेकत्वस्य प्रसिद्धितः। सर्वस्याप्यस्खलद्रूपात् प्रत्यक्षाढ़ेदसिद्धिवत् / / 154 // ... यथैव हि सर्वस्य प्रतिपत्तुरर्थस्य चास्खलितात्प्रत्यक्षाद् भेदसिद्धिस्तथा प्रत्यभिज्ञानादेरेकत्वसिद्धिरपीति दृष्टमेव तदेकत्वं। प्रत्यभिज्ञानमप्रमाणं संवादनाभावादिति चेत् / प्रत्यक्षमपि प्रमाणं माभूत् तत एव / न हि प्रत्यभिज्ञानेन प्रतीते विषये प्रत्यक्षस्यावर्तमानात्तस्य संवादनाभावो न पुनः प्रत्यक्षप्रतीते प्रत्यभिज्ञानस्याप्रवृत्तेः प्रत्यक्षस्येत्याचक्षाणः परीक्षको नाम / न प्रत्यक्षस्य स्वार्थे प्रमाणांतरवृत्तिः संवादनं / किं तर्हि? अबाधिता संवित्तिरिति चेत्। यथा भेदस्य संवित्तिः संवादनमबाधिता। तथैकत्वस्य निणीति: पूर्वोत्तरविवर्तयोः॥१५५ / / 'पूर्व और उत्तरवर्ती पर्यायों में एकत्व भी दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है' ऐसा कहना भी प्रशंसनीय नहीं है। क्योंकि सम्पूर्ण प्राणियों को अविचलित रूप प्रत्यभिज्ञान से 'यह वही है' इस प्रकार एकत्व की प्रसिद्धि है (एकत्व की प्रतीति हो रही है) जैसे प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा घट-पट आदि भेद की सिद्धि होती है॥१५४॥ अर्थात्- प्रत्यक्षज्ञान के समान प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है अतः प्रत्यभिज्ञान के द्वारा होने वाली एकत्व की प्रतीति यथार्थ है। जैसे सभी ज्ञानियों को अस्खलित (संशय, विपर्यय और अनध्यवसाय रहित) प्रत्यक्ष ज्ञान से अर्थ (पदार्थ) के भेद की सिद्धि होती है; उसी प्रकार प्रत्यभिज्ञान से एकत्व की सिद्धि होती है। अत: एकत्व दृष्टिगोचर हो रहा है- अनुभव में आ रहा है। (सत्य है- कल्पित नहीं है।) _ 'संवादन (दूसरे प्रमाण की प्रवृत्ति) का अभाव होने से प्रत्यभिज्ञान अप्रमाण है' ऐसा मानने पर तो प्रत्यक्ष ज्ञान भी प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि निर्विकल्प प्रत्यक्ष प्रमाण में भी दूसरे प्रमाणों की प्रवृत्ति रूप संवादन का अभाव है। तथा प्रत्यभिज्ञान के द्वारा प्रतीत (ज्ञात) विषय में निर्विकल्प प्रत्यक्ष ज्ञान की प्रवृत्ति नहीं होने से संवादन का अभाव है। पुनः प्रत्यक्ष के द्वारा प्रतीत विषय में प्रत्यभिज्ञान की प्रवृत्ति न होने से प्रत्यक्ष के संवादन का अभाव नहीं है, ऐसा कहने वाला परीक्षक नहीं हो सकता है। (बौद्ध) प्रत्यक्ष का अपने विषय में प्रमाणान्तर की प्रवृत्ति होने रूप संवादन नहीं है- अपितु बाधाओं से रहित समीचीन ज्ञप्ति होना ही प्रत्यक्ष का संवादन है तो जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहने पर तो जिस प्रकार घट, पट आदि भेदों (विशेषों) का प्रत्यक्ष ज्ञान बाधक प्रमाणों से रहित ज्ञान होने रूप संवादन है (भेद का ज्ञान समीचीन है), उसी प्रकार पूर्व-उत्तर पर्यायों में रहने वाले एकत्व का निर्णय भी संवादन है। पूर्व और उत्तर पर्यायों में होने वाला एकत्व का प्रत्यभिज्ञान भी बाधा रहित है॥१५५॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy