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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक -161 * एकसंतानगाशित्तपर्यायास्तत्त्वतोऽन्विताः। प्रत्यभिज्ञायमानत्वात् मृत्पर्याया यथेदृशाः / / 152 / / मृत्क्षणास्तत्त्वतोऽन्विताः परस्यासिद्धा इति न मंतव्यं तत्रान्वयापह्नवे प्रतीतिविरोधात् / सकललोकसाक्षिका हि मृद्धेदेषु तथान्वयप्रतीतिः। सैवेयं पूर्व दृष्टा मृदिति प्रत्यभिज्ञानस्याविसंवादिनः सद्भावात् / सादृश्यात् प्रत्यभिज्ञानं नानासंतानभाविनाम् / भेदानामिव तत्रापीत्यदृष्टपरिकल्पनम् // 153 // यथा नानासंतानवर्तिनां मृद्भेदानां सादृश्यात् प्रत्यभिज्ञायमानत्वं तथैकसंतानवर्तिनामपीति ब्रुवतामदृष्टपरिकल्पनामानं प्रतिक्षणं भूयात्तथा तेषामदृष्टत्वात् / तदेकत्वमपि न दृष्टमेवेति चेन्नैतत्सत्यम्। प्रत्यभिज्ञान भी प्रमाण है आत्मा की पर्यायें एक सन्तानगत हैं अतः परमार्थ से परस्पर अन्वित हैं। (ध्रुव रूप से चली आ रही हैं) क्योंकि यह वही है- इस प्रकार प्रत्यभिज्ञान के विषय को प्राप्त है। जैसे शिवक, स्थास, कोष, कुशूल और घट पर्याय में यह वही मृत्तिका (मिट्टी) है- ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है। अर्थात् जिस प्रकार घट, सकोरा आदि सभी मिट्टी की पर्यायों में मिट्टी अन्वय रूप से रहती है- उसी प्रकार बालकयुवा आदि अवस्था में त्रिकाल ध्रुव आत्मा अन्वित रहती है।।१५२॥ "मिट्टी के क्षण (सम्पूर्ण परिणाम) परमार्थ से परस्पर अन्वय सहित हैं- यह अन्य मतावलम्बियों को असिद्ध है", ऐसा नहीं समझना चाहिये। क्योंकि मिट्टी की पूर्वापर पर्यायों में रहने वाले स्थूलपर्याय रूप मिट्टी का लोप कर देने पर (मिट्टी का अस्तित्व स्वीकार नहीं करने पर) प्रतीति का विरोध आता है। अर्थात् मिट्टी की पूर्व-उत्तर पर्यायों में मिट्टी की प्रतीति सब को होती है। मिट्टी के भिन्न-भिन्न भेदों में लोकसाक्षी (सर्वजन प्रसिद्ध) अन्वय की प्रतीति होती है। यह वही मिट्टी है जिसको पूर्व में देखा था' इस प्रकार के अविसंवादी प्रत्यभिज्ञान का सद्भाव विद्यमान है। जैसे नाना सन्तान में रहने वाले भेदों का एकत्व प्रत्यभिज्ञान सादृश्य के सामर्थ्य से होता है, वैसे ही एक सन्तान में रहने वाली उन भिन्न ज्ञान पर्यायों में द्रव्य रूप से अन्वय नहीं रहने पर भी अधिक सदृशता के कारण एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता है। जैनाचार्य कहते हैं कि- इस प्रकार का यह बौद्ध का कथन अदृष्ट कल्पना है॥१५३॥ जिस प्रकार नाना संतान में रहने वाले मिट्टी के भेदों के सादृश्य से एकत्व प्रत्यभिज्ञान होता हैउसी प्रकार एक संतानवर्ती भिन्न-भिन्न ज्ञानपर्यायों में सदृशता के कारण उपचार से एकत्व का प्रत्यभिज्ञान होता है। जैनाचार्य कहते हैं- कि इस प्रकार कहने वाले बौद्धों की यह अदृष्ट की कल्पना करना मात्र है। क्योंकि इस प्रकार पूर्व पदार्थ का प्रत्येक क्षण में समूल नाश होकर तत्क्षण नवीन सदृश पदार्थ की उत्पत्ति हो जाना दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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