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________________ - तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 160 ततो युक्तं सत्त्वस्याविशेषणस्य हेतुत्वमहेतुकत्ववदिति। ततो भवत्येव साध्यसिद्धिः / साध्यसाधनवैकल्यं दृष्टांतेऽपि न वीक्ष्यते। नित्यानित्यात्मतासिद्धिः पृथिव्यादेरदोषतः // 151 // न होकांतानाधनंतत्वमंतस्तत्त्वस्य साध्यं येन पृथिव्यादिषु तदभावात् साध्यशून्यमुदाहरणं / नापि तत्र सत्त्वमसिद्धं यतः साधनवैकल्यं / तदसिद्धौ मतांतरानुसरणप्रसंगात् / ततो ऽनवद्यमनाधनंतत्वसाधनमात्मनस्तत्त्वांतरत्वसाधनवत् / सत्यमनाधनंतं चैतन्यं संतानापेक्षया न पुनरेकान्वयिद्रव्यापेक्षया क्षणिक चित्तानामन्वयानुपपत्तेरित्यपरः। सोऽप्यनात्मज्ञः / तदनन्वयत्वस्यानुमानबाधितत्वात्। तथाहि पूर्व पर्यायस्वरूप दूसरे भाव-स्वभाव वाले प्रागभाव के नित्यात्मकता विपक्षता नहीं है। अर्थात् प्रागभाव भी नित्यानित्यात्मक है अतः प्रागभाव सपक्ष है, विपक्ष नहीं है। इस हेतु में व्यभिचार की असंभवता है। इसलिए केवल 'सत्त्वात्' इस हेतु से (अहेतुक विशेषण रहित केवल सत्त्व हेतु से) ही द्रव्य की अनादि अनन्तता की सिद्धि हो जाती है। जैसे सत्त्व विशेषण रहित अहेतुकत्व से नित्य की सिद्धि हो जाती है। इसीलिए सत्त्व हेतु समीचीन है तथा यही साध्य को सिद्ध करता है। ___ सत्त्व हेतु वाले अनुमान में दिये गये पृथ्वी आदि तत्त्व रूप दृष्टान्त में भी साध्य-साधन विकलता दृष्टिगोचर नहीं होती है। क्योंकि पृथ्वी आदि (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु) के भी निर्दोष रूप से नित्यानित्यात्मकता सिद्ध है। अर्थात् पृथ्वी आदि सर्व पदार्थ कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य सिद्ध हैं।१५१ / / अन्तस्तत्त्व (आत्मा) के एकान्त से अनादि अनन्तता सिद्ध नहीं करते हैं जिससे वह पृथ्वी आदि तत्त्वों में नहीं रहने से उदाहरण साध्यशून्य होता है। अर्थात् पृथ्वी आदि में अनादि-अनन्त धर्म विद्यमान हैं अतः आत्मा के अनादि अनन्तत्व सिद्ध करने के लिए दिया गया पृथ्वी आदि का उदाहरण साध्य-साधन विकल नहीं है। तथा पृथ्वी आदि में सत्त्व हेतु भी असिद्ध नहीं है, जिससे साध्यसाधन विकल दृष्टांत हो सकता हो। क्योंकि दृष्टांत में साध्य-साधन विकल हो जाने पर मतान्तर (चार्वाक) के अनुसरण करने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् सत्त्व हेतु साध्य (आत्मा) और दृष्टान्त (पृथ्वी आदि) दोनों में विद्यमान है। अतः साध्य-विकल उदाहरण नहीं है। आत्मा को तत्त्वान्तर (भिन्न तत्त्व) सिद्ध करने के समान आत्मा के अनादि अनन्तत्व भी निर्दोष सिद्ध है। संतान की अपेक्षा आत्मा के अनादि अनन्तता सत्य है, समीचीन है। किन्तु एकान्वयी द्रव्य की अपेक्षा (ध्रुव रूप से एक द्रव्यत्व रहने की अपेक्षा) से आत्मा अनादि अनन्त काल तक रहने वाला नहीं है। क्योंकि क्षणिक चित्तों (एक क्षण में उत्पन्न होकर नष्ट होने वाले चित्तों) के अन्वय रूप से अनुपपत्ति है। अर्थात् एक क्षण में उत्पन्न होकर द्वितीय क्षण में नष्ट होने वाले आत्मद्रव्य का अनादि अनन्त काल तक अन्वय नहीं रहता है। ऐसा अपर (बौद्ध) कहता है। ___इस बौद्ध मत का खण्डन करते हुए जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहने वाला वह बौद्ध भी अनात्मज्ञ (आत्मतत्त्व के मर्म को नहीं जानने वाला) है। क्योंकि आत्मतत्त्व का पूर्वापर पर्यायों में अनन्वय (अन्वय नहीं रहना) अनुमान से बाधित है। अर्थात् आत्मा का त्रिकाल ध्रुवअन्वय प्रमाण सिद्ध है। उसको नहीं मानना प्रमाणबाधित है तथाहि
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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