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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 159 यतवं परमार्थतो घटादीनामपि नित्यानित्यात्मकत्वं सिद्धं ततो वृहस्पतिमतानुष्ठानेनापि न सत्त्वस्य घटादिभिर्व्यभिचारो युक्तस्तेन तस्यानेकांतेनाबाधितत्वात् / न च प्रमाणासिद्धेन परोपगममात्रात् केनचिद्धेतोय॑भिचारचोदने कशिद्धतुरव्यभिचारी स्यात् / वादिप्रतिवादिसिद्धेन तु व्यभिचारे न सत्त्वं कथंचिदनादिपर्यंतत्वे साध्ये व्यभिचारीति व्यर्थमस्याहेतुकत्वविशेषणं / अहेतुकत्वस्य हेतुकत्वे सत्त्वविशेषणवत्। प्रागभावेन व्यभिचारस्य सत्त्वविशेषणेन व्यवच्छिद्यत इति न तद्व्यनर्थमिति चेत्, न सर्वस्य तुच्छस्य प्रागभावत्वस्याप्रसिद्धत्वात् / भावांतरस्य भावस्य नित्यानित्यात्मकत्वाद्विपक्षतानुपपत्तेस्तेन व्यभिचारासंभवात्। इस प्रकार परमार्थ से घटादिक में भी कथंचित् नित्यानित्यात्मकत्व सिद्ध है। अत: वृहस्पति मत के अनुसार अनुष्ठान करने से भी घटादिक के द्वारा सत्त्व हेतु को व्यभिचार देना युक्त नहीं है। क्योंकि उस सत्त्व हेतु की नित्यानित्यात्मक अनेक धर्मों के साथ व्याप्ति होने में कोई बाधक प्रमाण नहीं है। केवल दूसरों के द्वारा स्वीकृत, किसी भी प्रमाण के द्वारा सिद्ध नहीं किये गए पदार्थ के द्वारा समीचीन हेतु में अनेकान्त हेत्वाभास की शंका उठाने पर तो कोई भी हेतु अव्यभिचारी (निर्दोष) नहीं हो सकता। वादी-प्रतिवादियों के द्वारा प्रसिद्ध हेतु के द्वारा व्यभिचार (दोष) देने पर तो कथंचित् अनादि अनन्त साध्य द्रव्य में सत्त्व हेतु. व्यभिचारी नहीं है। अतः द्रव्य को नित्य सिद्ध करने के लिए दिये गये इस ‘सत्त्वात्' हेतु के अहेतुकत्व (यह सत्त्व हेतु नहीं है) यह विशेषण देना व्यर्थ है। अर्थात् सर्व पदार्थ द्रव्य और पर्यायात्मक होने से नित्यानित्यात्मक हैं अतः अहेतुक विशेषण व्यर्थ है। जैसे कि अकेले अहेतुकत्व (नहीं है बनाने वाला कारण जिसका) इस लक्षण से ही जब पदार्थ का नित्यपना लक्षित हो जाता है अथवा अहेतुकत्व (आत्मा आदि पदार्थ किसी के द्वारा बनाये हुए नहीं है ऐसे) को ही हेतु मान लेने पर द्रव्य का नित्यपना सिद्ध हो जाता है अतः इसमें सत्त्व विशेषण व्यर्थ है। अर्थात् सत्त्व या अहेतुकत्व, एक ही विशेषण से पदार्थ के नित्यपने की सिद्धि हो जाती है फिर 'अहेतुक सत्त्व' ऐसा कहने से क्या प्रयोजन है? चार्वाक :- प्रागभाव के द्वारा आने वाले व्यभिचार को सत्त्व विशेषण से दूर किया जाता है। अतः ‘सत्त्व' विशेषण व्यर्थ नहीं है। अर्थात् बिना कारण से उत्पन्न प्रागभाव अनादिकाल से चला आ रहा है, किन्तु सान्त है, कार्य के उत्पन्न हो जाने पर नष्ट हो जाता है। अतः प्रागभाव त्रिकाल नित्य नहीं है। उस प्राग् अभाव का निराकरण करने के लिए नित्य के लक्षण या हेतु में सत्त्व रूप विशेषण दिया गया है। अतः सत्त्व विशेषण व्यर्थ नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि नैयायिकों का यह कथन ठीक नहीं है- क्योंकि सर्वथा तुच्छ प्रागभाव प्रसिद्ध नहीं है। अर्थात् नैयायिक आदि सभी मतों में धर्म-धर्मी, कार्य-कारण आदि स्वभाव से रहित तुच्छाभाव रूप प्रागभाव प्रमाणों से सिद्ध नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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