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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१४८ देहस्य च गुणत्वेन बुद्धेर्या सिद्धसाध्यता। भेदे साध्ये तयोः सापि न साध्वी तदसिद्धितः / / 136 / / कथं देहगुणत्वेन बुद्धरसिद्धिर्यतो बुद्धिदेहयोर्गुणगुणिभावेन भेदसाधने सिद्धसाधनमसाधीयः स्यादिति ब्रूमहे। न विग्रहगुणो बोधस्तत्रानध्यवसायतः / स्पर्शादिवत्स्वयं तद्वदन्यस्यापि तथा गतेः॥१३७॥ न हि यथेह देहे स्पर्शादय इति स्वस्य परस्य वाध्यवसायोऽस्ति तथैव देहे बुद्धिरिति येनासौ देहगुणः स्यात् / प्राणादिमति काये चेतनेत्यस्त्येवाध्यवसायः कायादन्यत्र तदभावादिति चेत् / न / तस्य बाधकसद्भावात्सत्यतानुपपत्तेः / कथम् चैतन्य को शरीर का गुण मानकर चार्वाक ने स्याद्वाद मत के अनुमान के द्वारा शरीर और आत्मा की भेद (भिन्न तत्त्व) साध्यता में सिद्धसाधन दोष दिया था- वह भी युक्तिसंगत नहीं है, समीचीन नहीं है। क्योंकि आत्मा शरीर का गुण है, यह सिद्ध नहीं है। अर्थात् आत्मा शरीर का गुण हो ही नहीं सकताक्योंकि किसी भी प्रमाण से यह सिद्ध नहीं है॥१३६ // शंका- चैतन्य के शरीर का गुणत्व क्यों नहीं है? जिससे चैतन्य और शरीर में गुणे-गुणी रूप से भेद स्वीकार करके चार्वाक के द्वारा कहा गया सिद्धसाधन दोष स्याद्वाद के प्रति घटित नहीं हो सकता हो? जैनाचार्य इस शंका का समाधान करते हैं- समाधान : चैतन्य (ज्ञान) शरीर का गुण नहीं हैक्योंकि जैसे शरीर के स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि गुणों का निश्चय हो रहा है, दृष्टि से ये गुण दृष्टिगोचर हो रहे हैं- वैसे शरीर में ज्ञान गुण का निश्चय नहीं होता है (दृष्टिगोचर नहीं हो रहा है)। यदि निर्णय (प्रमाण के द्वारा सिद्ध किये) बिना ही किसी को किसी का गुण मान लेंगे तो जल का गंध गुण, वायु का रूप गुण मानने में क्या दोष है, जो नैयायिक और चार्वाक को इष्ट नहीं है॥१३७॥ जिस प्रकार शरीर में स्पर्श, रस, गन्ध वर्ण गुण हैं, इस प्रकार स्वयं को और दूसरों को निश्चय हो रहा है, उसी प्रकार शरीर में चैतन्य है, इसका निश्चय नहीं हो रहा है। अतः ज्ञान को शरीर का गुण कैसे माना जा सकता है? चार्वाक कहता है कि प्राणस्वरूप श्वास-उच्छ्रास लेना, बोलना, चेष्टा करना, सुख-दुःख का अनुभव करना आदि से युक्त शरीर में चेतना विद्यमान है, इस प्रकार शरीर में चेतना है इसका निर्णय (निश्चय) होता ही है; क्योंकि श्वासोच्छ्रास आदि प्राणों से युक्त शरीर से अतिरिक्त घट आदि में श्वासोच्छ्वास, सुख-दु:ख आदि का अनुभव नहीं होने से शरीर के गुण ज्ञान का अभाव पाया जाता है। . जैनाचार्य कहते हैं कि- चार्वाक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि शरीर का गुण चेतना है- (शरीर में ही चेतना है) इस कथन में बाधक कारणों का सद्भाव होने से यह कथन सत्यता को प्राप्त नहीं होता है। अर्थात् आत्मा शरीर का गुण है, यह कथन प्रत्यक्षादि प्रमाणों से बाधित है। अतः असिद्ध
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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