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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 149 * तद्गुणत्वे हि बोधस्य मृतदेहेऽपि वेदनम्। भवेत्त्वगादिवबाह्यकरणज्ञानतो न किम् / / 138 // बायेंद्रियज्ञानग्राह्यो बोधोऽस्तु देहगुणत्वात् स्पर्शादिवद्विपर्ययो वा। न च बोधस्य बाह्यकरणज्ञानवेद्यत्वमित्यतिप्रसंगविपर्ययौ देहगुणत्वं बुद्धेर्बाधेते। शंका- ज्ञान शरीर का गुण है- यह बाधित क्यों है? उत्तर- यदि चैतन्य को भौतिक अचेतन शरीर का गुण मानेंगे तो मृत शरीर में भी चैतन्य का वेदन (ज्ञान) होना चाहिए। जिस प्रकार मृत शरीर में बाह्य स्पर्शन आदि इन्द्रियों के द्वारा स्पर्श, रस, गन्ध और वर्ण का ज्ञान हो रहा है, उसी प्रकार बाह्य इन्द्रियों के द्वारा मृत शरीर में चैतन्य का ज्ञान क्यों नहीं होता है? क्योंकि चार्वाक मतानुसार चैतन्य भी रूप-रसादि के समान शरीर का गुण है और बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य है॥१३८॥ _अनुमान-ज्ञान बाह्य इन्द्रियज्ञान के द्वारा ग्राह्य है- शरीर का गुण होने से। जो-जो शरीर के गुण होते हैं- वे-वे इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य होते हैं- जैसे स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि। . अथवा- विपरीत होगा कि ज्ञान शरीर का गुण नहीं है- बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं होने से। जो-जो बाह्य इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य नहीं है, वह शरीर का गुण नहीं है- सुख आदि। अथवा-शरीर के गुण स्पर्शादि भी बाह्य इन्द्रियों के द्वारा ग्राह्य नहीं होने चाहिए- जैसे शरीर का गुण ज्ञान बाह्य इन्द्रिय के द्वारा ग्राह्य नहीं है। चैतन्य का बाह्य इन्द्रियजन्य ज्ञान के द्वारा वेद्यत्व (जानना) देखा नहीं गया है। और न अनुमान प्रमाण से इष्ट (सिद्ध) किया गया है। यदि प्रत्यक्ष ज्ञान और अनुमान के द्वारा चैतन्य, शरीर का गुण सिद्ध हो जाता है तब तो चैतन्य शरीर का गुण है, इसमें संशय ही उत्पन्न नहीं हो सकता। अर्थात् संशय होने का प्रसंग ही नहीं आता है। तथा स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण आदि के अबाह्य ज्ञान वेद्यत्व (स्पर्शादि बाह्य इन्द्रियों के द्वारा वेद्य नहीं है ऐसा) का प्रसंग भी नहीं आता है और चैतन्य को बहिरंग इन्द्रियों से जानने का प्रसंग भी नहीं आता है। इस प्रकार पूर्वोक्त दोनों अतिप्रसंग और विपर्यय दोष होना ज्ञान को देह का गुण होने में बाधा देते हैं। अतः 'देह में बुद्धि है' इस ज्ञान को बाधक प्रमाण उत्पन्न होने से सत्यता सिद्ध नहीं होती है, अतः शरीर का गुण चैतन्य नहीं है, यह निर्बाध सिद्ध हुआ।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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