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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 147 तत्ततस्तत्त्वांतरमतिप्रसंगात् / नापि स्वात्मभूतं व्यंग्यं तत एव / व्यंजकाद्भिन्नं तत्तत्त्वांतरमिति चेन्न / अद्भ्यो रसनस्य तद्भावप्रसंगात् / रसनं हि व्यंग्यमद्भ्यो भिन्नं च ताभ्यो न च तत्त्वांतरं तस्याप्तत्वेऽन्तर्भावात् / कार्यकारणयोः सर्वथा भेदात्तद्विशेषयोर्यंग्यव्यंजकयोरपि भेद एवेति चेन्न / कयोशिदभेदोपलब्धेः / कथमन्यथा चैतन्यस्थ देहोपादानत्वेऽपि तत्त्वांतरता न स्यात्, देहाभिव्यंग्यत्वे वा। येन कार्यकारणभावेन देहचैतन्ययोर्भेदे साध्ये सिद्धसाधनमुद्भाव्यते। आत्मा और शरीर में कार्य-कारण की अपेक्षा ही भेद नहीं है अपितु लक्षण अपेक्षा भी भेद है अतः सिद्धसाधन दोष नहीं है क्योंकि जैन सिद्धान्त में शरीर और आत्मा में तत्त्वान्तर (भिन्न-भिन्न तत्त्व) से भेद सिद्ध किया है। अर्थात् शरीर और आत्मा भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं दोनों स्वतंत्र तत्त्व हैं, ऐसा सिद्ध किया है। क्योंकि जो जिस का कार्य होता है- वह तत्त्वान्तर (पृथक्तत्त्व) नहीं होता है, ऐसा न मानकर यदि प्रत्येक कारण को कार्य से भिन्न तत्त्व स्वीकार किया जायेगा तो अति प्रसंग दोष आयेगा अर्थात् असंख्यात तत्त्व हो जायेंगे। तथा स्वात्मभूत व्यंग्य है- वही आत्मा का स्वरूप नहीं है। वह व्यंग्य (प्रगट होने योग्य आत्मा- द्रव्य) उत्पादक (व्यञ्जक) से भिन्न तत्त्वन्तर नहीं है। ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि ऐसा मानने पर जल से रसना इन्द्रिय के व्यंग्य हो जाने के कारण उसके भी तत्त्वान्तर (भिन्न तत्त्व) होने का प्रसंग आयेगा। जल तत्त्व से व्यंग्य (निर्मित वा उत्पन्न) रसना इन्द्रिय निश्चय से पानी से व्यंग्य (उत्पन्न) है और जल से भिन्न है परन्तु चार्वाक मत में रसना इन्द्रिय को चार भूतों से भिन्न तत्त्व नहीं माना है। अर्थात् रसना इन्द्रिय को जलतत्त्व में गर्भित किया है तथा नासिका इन्द्रिय को पृथ्वी तत्त्व में, चक्षु इन्द्रिय को अग्नि तत्त्व में और स्पर्शन इन्द्रिय को वायवीय (वायुतत्त्व) तत्त्व माना है। कार्य-कारण में सर्वथा भेद होने से उस विशेषवान और विशेष्य में, व्यंग्य और व्यंजक में भी भेद ही है। अर्थात् नैयायिक के समान कार्य-कारण सर्वथा भिन्न ही हैं। अतः कार्य-कारण भाव के व्याप्य रूप होने से व्यंग्य और व्यंजक भाव में भी भेद ही है। जैनाचार्य कहते हैं कि- चार्वाक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं हैक्योंकि किन्हीं-किन्हीं कार्य और कारणों में अभेद की उपलब्धि भी होती है। जैसे मिट्टी और घट में, तन्तु और पट में कार्य-कारण भाव में अभेदत्व है। किन्हीं व्यंग्य और व्यंजक भाव में भी अभेद पाया जाता है। जैसे व्यंजक (प्रगट करने वाला) दीपक और व्यंग्य (प्रगट होने वाले) घट में पौद्गलिक दृष्टि से अभेद है - अर्थात् व्यंग्य और व्यञ्जक दोनों ही पुद्गल की पर्याय हैं। अन्यथा (यदि कार्य-कारण और व्यंग्य-व्यञक भाव में कथंचित् किसी में अभेद स्वीकार नहीं किया जायेगा तो) चैतन्य स्वरूप कार्य के देह रूप कारण का उपादान हेतु होने पर भी कारक पक्ष में भिन्न तत्त्वत्व क्यों नहीं होगा। अथवा आत्मा की शरीर से प्रगटता मानने पर भी व्यंजक पक्ष में तत्त्वान्तर (भिन्न-भिन्न तत्त्व) रूप से भेद क्यों नहीं होगा। जिससे कि कार्यरूप चैतन्य और कारणरूप शरीर में भेद स्वीकार करने पर चार्वाक स्याद्वाद सिद्धान्त में शरीर और आत्मा को भिन्न-भिन्न तत्त्व सिद्ध करने वाले हेतु में सिद्धसाधन दोष देते हैं। अर्थात् कार्य-कारण भेद होने पर भी आत्मा और शरीर में वास्तविक तत्त्व रूप से भेद चार्वाक को इष्ट नहीं है। नैयायिक मत का खण्डन करने के लिए चार्वाक ने शरीर और आत्मा में कार्य-कारण भेद तो स्वीकार किया है परन्तु तत्त्वान्तर भेद स्वीकार नहीं किया है। परन्तु स्याद्वाद दर्शन में आत्मा और शरीर में तत्त्वान्तर (भिन्न-भिन्न तत्त्व) सिद्ध किया है। आत्मा चैतन्य है, स्वसंवेद्य है, शरीर जड़ है अतः सिद्ध साधन दोषों को यहाँ अवकाश नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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