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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 146 . तथा सति न दृष्टस्य हानिर्नादृष्टकल्पना। मध्यावस्थावदादौ च चिद्देहादेशिदुद्भवात् // 133 / / ततश्च चिदुपादानाच्चेतनेति विनिश्चयात्। न शरीरादयस्तस्याः संत्युपादानहेतवः / / 134 // तदेवं न शरीरादिभ्योऽभिव्यक्तिवदुत्पत्तिश्चैतन्यस्य घटते सर्वथा तेषां व्यंजकत्ववत्कारकत्वानुपपत्तेः। एतेन देहचैतन्यभेदसाधनमिष्टकृत् / कार्यकारणभावेनेत्येतद्ध्वस्तं निबुद्ध्यताम् // 135 // निरस्ते हि देहचैतन्ययोः कार्यकारणभावे व्यंग्यव्यंजकभावे च तेन तयोर्भेदसाधने सिद्धसाधनमित्येतनिरस्तं भवति तत्त्वांतरत्वेन तद्भेदस्य साध्यत्वात् / न च यद्यस्य कार्य इस प्रकार ऐसा कार्य, कारण मानने पर प्रत्यक्ष और अनुमान से दृष्ट पदार्थ की हानि नहीं होती है और न अदृष्ट कल्पना का प्रसंग आता है। क्योंकि मध्य की अवस्था के समान आदि में भी ज्ञान शरीर से चैतन्य उत्पन्न होता है अर्थात् जैसे गर्भ अवस्था से लेकर मरणपर्यन्त आत्मा रहता है, उसी प्रकार उसके पहले भी ज्ञानशरीरी आत्मा था- उस आत्मा की पर्याय आत्मा से उत्पन्न हुई है। नूतन आत्मा चार भूतों से उत्पन्न नहीं हुआ है। इसलिए चेतन उपादान से ही चेतनात्मा उत्पन्न हुई है- ऐसा निश्चय करना चाहिए। अतः शरीर, इन्द्रिय और विषय चेतना के उपादान कारण नहीं हैं॥१३३-१३४॥ इस प्रकार पूर्वोक्त युक्तियों से यह सिद्ध होता है कि- जैसे शरीर आदि से आत्मा की अभिव्यक्ति होती है- वैसे शरीर आदि से आत्मा की उत्पत्ति घटित नहीं होती है। क्योंकि उन शरीर, इन्द्रिय, विषय और भतचतुष्टय के चैतन्य के अभिव्यञ्जक के समान कारकत्व की अनुपपत्ति है। अर्थात् शरीर आदि कारणों से आत्मा प्रगट होता है, वा दृष्टिगोचर होता है- परन्तु उत्पन्न नहीं होता है। अतः शरीर आदि आत्मा के अभिव्यञ्जक तो हैं परन्तु कारक नहीं हैं। इस भिन्न लक्षण हेतु के कथन से देह और चैतन्य में भेदसाधन इष्ट किया है। अर्थात्- जड़ और चैतन्य के भिन्न-भिन्न लक्षणों द्वारा दोनों में भेद सिद्ध किया है। तथा - चार्वाक द्वारा कथित कार्य - कारण की अपेक्षा आत्मा और शरीर में भेद सिद्ध किया था - अर्थात् शरीर आदि जड़ पदार्थ आत्मा की उत्पत्ति के कारण हैं और आत्मा कार्य है- ऐसा कार्य-कारण भेद सिद्ध किया था, उसका भी खण्डन कर दिया है। (जड़ शरीर आदि आत्मा के उपादान कारण नहीं हैं- और न चेतन आत्मा जड़ शरीर आदि का कार्य है) ऐसा समझना चाहिए // 135 // आत्मा और शरीर में कार्य-कारण भेद है- अतः आत्मा और शरीर में भेद सिद्ध करना सिद्धसाधन दोष है ऐसा चार्वाक ने जैनाचार्य के प्रति कहा था। परन्तु स्याद्वाद द्वारा कथित भिन्न-भिन्न लक्षण से आत्मा और शरीर के व्यंग्य-व्यञ्जक तथा कार्य-कारण भाव का खण्डन कर देने पर दोनों के भेद सिद्ध करने में चार्वाक के द्वारा उठाये गये सिद्धसाधन दोष का भी निराकरण कर दिया गया है। अर्थात
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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