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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 131 * विभिन्नलक्षणत्वाच्च भेदचैतन्यदेहयोः। तत्त्वांतरतया तोयतेजोवदिति मीयते // 108 // चैतन्यदेही तत्त्वांतरत्वेन भिन्नौ भिन्नलक्षणत्वात् तोयतेजोवत् / इत्यत्र नासिद्धो हेतुः, स्वसंवेदनलक्षणत्वाच्चैतन्यस्य, काठिन्यलक्षणत्वात् क्षित्यादिपरिणामात्मनो देहस्य, तयोभिन्नलक्षणत्वस्य सिद्धेः। परिणामिपरिणामभावेन भेदसाधने सिद्धसाधनमित्ययुक्तं तत्त्वांतरतयेति साध्ये देहचैतन्ययोः तत्त्वान्तरतया भेदसाधनमस्ति विशेषणात्। कुटपटाभ्यां भिन्नलक्षणाभ्यां तत्त्वांतरत्वेन भेदरहिताभ्यामनेकांत इति चेन्न। तत्र परेषां भिन्नलक्षणत्वासिद्धेरन्यथा चत्त्वार्येव तत्त्वानीति व्यवस्थानुपपत्तेः / कुटपटादीनां भिन्नलक्षणत्वेऽपि तत्त्वांतराभावे क्षित्यादीनामपि तत्त्वांतराभावात् / धारणादिलक्षणसामान्यभेदात्तेषां तत्त्वांतरत्वं न लक्षणविशेषभेदायेन घटपटादीनां तत्प्रसंग इति चेत्, शरीर और आत्मा भिन्न हैं तथा-आत्मा और शरीर का भिन्न-भिन्न लक्षण होने से तत्त्वान्तर (पृथक्त्व) से भेद है। अर्थात् शरीर और आत्मा दोनों भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं। जैसे आप चार्वाक के मत में अग्नि और जल भिन्न-भिन्न तत्त्व हैं।॥१०८॥ : चैतन्य (आत्मा) और शरीर भिन्न-भिन्न लक्षण वाले होने से तत्त्वान्तर से भिन्न-भिन्न हैं। अर्थात् दोनों पृथक्-पृथक तत्त्व हैं। जैसे उष्णता और शीत रूप भिन्न-भिन्न लक्षण वाले होने से अग्नि और जल भिन्न-भित्र हैं। आत्मा और शरीर को भिन्न-भिन्न सिद्ध करने में दिया गया भिन्न लक्षणत्व हेतु असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि चैतन्य का लक्षण स्वसंवेदन है अथवा स्व-पर को जानना-देखना ज्ञाता-द्रष्टापना है और पृथ्वी, जल, तेज, वायु के द्वारा निर्मित (वा पृथ्वी आदि की पर्याय रूप) शरीर कठिनता, भारीपन आदि लक्षण वाला है। अतः शरीर और आत्मा में भिन्न-भिन्न लक्षणत्व की सिद्धि है। (चार्वाक) शरीर परिणामी है और शरीर का परिणाम चैतन्य है अतः परिणाम और परिणामी भाव से इन दोनों में भेद सिद्ध करने पर सिद्धसाधन दोष आता है- क्योंकि परिणाम और परिणामी की अपेक्षा शरीर और आत्मा में भेद चार्वाक भी मानते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि- चार्वाक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि 'तत्त्वान्तर से साध्य है।' इसमें शरीर और आत्मा में तत्त्वान्तर भेद सिद्ध किया है- अत: तत्त्वान्तर विशेषण दिया है। अर्थात्- शरीर और आत्मा दोनों पृथक्-पृथक् तत्त्व हैं- यह सिद्ध करना अभीष्ट है, परिणाम और परिणामी रूप से नहीं। तत्त्वान्तर से भेदरहित भिन्न-भिन्न लक्षण वाले कुट और पट के द्वारा यह अनेकान्ताभास है। अर्थात् मिट्टी आदि से निर्मित जलधारण लक्षण वाला घट भिन्न है और कपास आदि से निर्मित शीत बाधा को दूर करने रूप लक्षण वाला कपड़ा भिन्न है- दोनों के भिन्न-भिन्न लक्षण हैं परन्तु ये तत्त्वान्तर से भिन्न नहीं हैं। दोनों एक पुद्गल तत्त्व की पर्याय हैं, भिन्न-भिन्न तत्त्व नहीं है अतः भिन्न-भिन्न लक्षण होने से भिन्न तत्त्व हैं, यह हेतु अनेकान्त हेत्वाभास है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा कहना उचित नहीं हैं- क्योंकि
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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