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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१३० प्राच्यं हि वेदनं तावन्नार्थं वेदयते ध्रुवम् / यावन्नान्येन बोधेन बुद्ध्यं सोऽप्येवमेव तु / / 106 / / नार्थस्य दर्शनं सिद्धयेत् प्रत्यक्षं सुरमंत्रिणः। तथा सति कृतश्च स्यान्मतांतरसमाश्रयः // 10 // अर्थदर्शनं प्रत्यक्षमिति वृहस्पतिमतं परित्यज्यैकार्थसमवेतानंतरज्ञानवेद्यमर्थज्ञानमिति ब्रुवाण: कथं चार्वाको नाम? परोपगमात्तथावचनमिति चेन्न / स्वसंविदितज्ञानवादिनः परत्वात् / ततोऽपि मतांतरसमाश्रयस्य दुर्निवारत्वात् / न च तदुपपन्नमनवस्थानात् / इति सिद्धं स्वसंवेदनं बाधवर्जितं सुख्यहमित्यादिकायात्तत्वांतरतयात्मनो भेदं साधयतीति किं नचिन्तया। नया - प्रथम-पहला ज्ञान तब तक निश्चित रूप से अर्थ का ज्ञान नहीं कर सकता है- जब तक कि दूसरे ज्ञान से स्वयं विदित नहीं हो जाता है। इसी प्रकार वह ज्ञान भी भविष्य में दूसरे ज्ञानों के द्वारा ज्ञात होकर ही विषय का ज्ञापक हो सकता है॥१०६॥ इस प्रकार अनवस्था दोष से दूषित होने से वृहस्पति ऋषि के अनुयायी चार्वाक के मत में तो पदार्थों ने वाला अकेला प्रत्यक्ष प्रमाण भी सिद्ध नहीं हो सकता। उनके मत में प्रत्यक्ष ज्ञान स्वयं को जानता' नहीं है और प्रत्यक्ष ज्ञान को जानने के लिए दूसरा ज्ञान चार्वाक ने स्वीकार किया नहीं है। यदि प्रत्यक्ष ज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान को स्वीकार करेंगे तो मतान्तर (नैयायिक के मत) का आश्रय लेना पड़ेगा / / 107 // अर्थ का दर्शन करना प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस एक इन्द्रियजन्य प्रत्यक्ष ज्ञान को प्रमाण मानने वाले वृहस्पति' के मत का परित्याग कर ‘एकार्थ समवेतानन्तर' (पूर्व ज्ञान) का दूसरे समवाय सम्बन्ध से उत्पन्न अव्यवहित उत्तरवर्ती ज्ञानों के द्वारा वेद्य अर्थ ज्ञान है (अर्थात् ज्ञान दूसरे ज्ञान के द्वारा जानने योग्य है) ऐसा कहने वाला चार्वाक कैसे हो सकता है। क्योंकि चार्वाक ज्ञान का किसी ज्ञान के द्वारा प्रत्यक्ष होना नहीं मानते हैं। ___दूसरों के उपगम (कथन) से चार्वाक भी ज्ञान के द्वारा ज्ञान का प्रत्यक्ष होना (वेदन होना) मानते हैं, ऐसा कहना भी उचित नहीं है। क्योंकि स्वसंविदित ज्ञान (ज्ञान का ज्ञान के द्वारा वेदन होना) वादी पर (दूसरा) है- वह जैन है क्योंकि जैनदर्शन में ही ज्ञान को स्व-पर-प्रकाशक स्वीकार किया है। अतः चार्वाक को मतान्तर (जैनमत) का आश्रय लेना दुर्निवार होगा। अर्थात् अवश्य ही जैनदर्शन का आश्रय लेना पड़ेगा। अथवा ज्ञान स्व को नहीं जानता है, ज्ञान को जानने के लिए दूसरे ज्ञान की आवश्यकता है- ऐसा कहने वाले नैयायिक का आश्रय लेना युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि उसमें अनवस्था दोष आता है। इस प्रकार अब तक यह सिद्ध हुआ कि - 'मैं सुखी हूँ - मैं दुःखी हूँ' इत्यादि उल्लेख को धारण करने वाला बाधारहित स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ही शरीर से भिन्न तत्त्वरूप करके आत्मा के भेद को सिद्ध करता है। फिर हमें अधिक चिन्ता करने से क्या प्रयोजन है। अर्थात् प्रत्येक प्राणी को स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा शरीर से भिन्न आत्मा का अनुभव होता है। - 1. इस पंचम काल में चार्वाक मत प्रस्थापक वृहस्पति नामक ऋषि हुए थे। उनके मत में एक प्रत्यक्ष ज्ञान ही प्रमाण है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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