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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-१२८ स्वरूपमात्रपरामर्शित्वात्तथा न स्वसंवेदनं बहिःकरणापेक्षं स्वरूपमात्रपरामर्शित्वात्, यन्न तथा तन्न तथा नीलवेदनं स्वरूपमात्रपरामर्शि चाहं सुखीत्यावेदनमित्यनुमानादपि तस्य तथाभावासिद्धेः / स्वात्मनि क्रियाविरोधात् स्वरूपपरामर्शनमस्यासिद्धमिति चेत् / तद्विलोपे न वै किंचित्कस्यचिद्व्यवतिष्ठते। . स्वसंवेदनमूलत्वात्स्वेष्टतत्त्वव्यवस्थितेः // 104 // पृथिव्यापस्तेजोवायुरिति तत्त्वानि, सर्वमुपप्लवमात्रमिति वा स्वेष्टं तत्त्वं व्यवस्थापयत्स्वसंवेदनं स्वीकर्तुमर्हत्येव, अन्यथा तदसिद्धेः। परपर्यनुयोगमात्रं कुरुते न पुनस्तत्त्वं व्यवस्थापयतीति चेत्, व्याहतमिदं तस्यैवेष्टत्वात् / परोपगमात् परपर्यनुयोगमात्रं कुरुते न तु स्वयमिष्टे, येन तदेव तत्त्वं व्यवस्थापितं भवेदिति चेत् / स परोपगमो यधुपप्लुतस्तदा न ततः परपर्यनुयोगो तथा 'मैं सुखी हूँ' यह स्वसंवेदन ज्ञान अपने स्वरूप मात्र का स्पर्श करने वाला होने से अपनी उत्पत्ति में बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा नहीं रखता है। क्योंकि जो ज्ञान स्वरूपमात्र का (ज्ञान के स्व अंशों का) परामर्शी (अवलम्बन लेने वाला) है वह बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा रखने वाला नहीं है। जो बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा रखने वाला है वह अन्तस्तत्त्व का विषय करने वाला नहीं है, जैसे नील का वेदन, मधुर रस का वेदन, इत्यादि / 'मैं सुखी हूँ' इत्यादि का वेदन स्वरूपमात्र का परामर्शी (ज्ञानस्वरूप की ज्ञप्ति कराने वाला) है, इसलिए बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा रखने वाला नहीं है। इस प्रकार अनुमान से भी 'मैं सुखी हूँ' इत्यादि ज्ञान के बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा का अभाव सिद्ध है। अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा रखना सिद्ध नहीं है। स्वात्मा में क्रिया का विरोध होने से इस स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के अपने स्वरूप के परामर्श (स्वस्वरूप) . की विज्ञप्ति करना असिद्ध है। इस प्रकार चार्वाक के कहने पर आचार्य कहते हैं स्व को जानने वाले ज्ञान का लोप कर देने पर निश्चय से किसी भी वादी का कोई भी तत्त्व व्यवस्थित नहीं हो सकता। क्योंकि सर्ववादियों के अपने इष्ट तत्त्वों की व्यवस्था करना स्वसंवेदन ज्ञान की नींव पर अवलम्बित है। अर्थात् स्वपर-प्रकाशक ज्ञान के द्वारा ही अभीष्ट तत्त्वों की सिद्धि होती है। ज्ञान की स्व ज्ञप्ति को स्वीकार नहीं करने पर कोई भी दर्शन सिद्ध नहीं हो सकता है॥१०४।। ___(चार्वाक मत में) पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु ये चार तत्त्व हैं तथा (शून्यवादी के मत में) सम्पूर्ण पदार्थ केवल शून्य रूप असत् हैं। इस प्रकार स्व इष्ट तत्त्व व्यवस्थापन करने वाले (चार्वाक वा शून्यवादी) को स्वसंवेदन स्वीकार करना योग्य है। अर्थात् अपने इष्ट को सिद्ध करने के लिए स्व को जानना स्वीकार करना ही पड़ेगा। अन्यथा- (यदि ज्ञान का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना नहीं स्वीकार करेंगे तो) इस इष्ट तत्त्व की सिद्धि नहीं हो सकती। क्योंकि एक ज्ञान ही ऐसा पदार्थ है जो स्व और पर को जानने का, समझने का प्रधान कारण है। __(चार्वाक कहता है कि) भूतचतुष्टय वादी वा शून्यवादी पण्डित केवल प्रश्नों को उठाकर दूसरों के ऊपर दोषारोपण करते हैं, तत्त्व व्यवस्था नहीं करते हैं, ऐसा चार्वाक के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं किचार्वाक का यह कथन अपने इष्ट तत्त्व का व्याघात करता है। क्योंकि जो स्व की जय का उद्देश्य लेकर परपक्ष का खण्डन करने में तत्पर होता है वही उसका इष्ट तत्त्व है, तो फिर वह चार्वाक या शून्यवादी कैसे कह सकता है कि मैं किसी तत्त्व की व्यवस्था नहीं कर रहा हूँ।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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