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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 127 गुल्मीत्यवभासनवत् / करणापेक्षं हीदं शरीरांतःस्पर्शनेंद्रियनिमित्तत्वात् / सुख्यहमित्यवभासनमिति तथास्तु तत एवेति चेत्, न / तस्याहंकारमात्राश्रयत्वात् / भ्रांतं तदिति हि चेन्न / अबाधत्वात् / नन्वहं सुखीति वेदनं करणापेक्षं वेदनत्वादहं गुल्मीत्यादिवेदनवदित्यनुमानबाधस्य सद्भावात्सबाधमेवेति चेत् / किमिदमनुमानं करणमात्रापेक्षत्वस्य साधकं बहिःकरणापेक्षत्वस्य साधकं वा? प्रथमपक्षे न तत्साधकं स्वसंवेदनस्यांतकरणापेक्षस्येष्टत्वात् / द्वितीयपक्षे प्रतीतिविरोध: स्वतस्तस्य बहिःकरणापेक्षत्वाप्रतीतेः। (चार्वाक) जिस प्रकार वातादिजन्य गूमड़ा, स्थूलपना आदि शरीर के भीतर स्पर्शन इन्द्रियजन्य ज्ञान का विषय होने से इन्द्रियों की अपेक्षा रखने वाला है, उसी प्रकार 'मैं सुखी हूँ यह ज्ञान भी इन्द्रियों का निमित्त पाकर उत्पन्न होता है, इसलिए इसे भी इन्द्रियजन्य मानना चाहिए। इस पर जैनाचार्य कहते हैं कि चार्वाक का यह कथन सुसंगत नहीं है। क्योंकि 'मैं सुखी हूँ' यह वेदन (ज्ञान) तो केवल अहं (मैं) कराने वाली (अहं का अनुभव कराने वाली) प्रतीति का आश्रय लेकर उत्पन्न हुआ है। इसमें चक्षु आदि बाह्य इन्द्रियाँ कारण नहीं हैं। ___ 'मैं सुखी हूँ' यह ज्ञान भ्रान्त है, चार्वाक का यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि 'मैं सुखी हूँ यह ज्ञान बाधा रहित है, किसी भी प्रमाण से इसका खण्डन नहीं हो सकता। अतः प्रमाण प्रसिद्ध होने से यह ज्ञान भ्रान्त नहीं है। .. शंका (चार्वाक)- 'मैं सुखी हूँ' यह ज्ञान (पक्ष) इन्द्रियों की अपेक्षा से उत्पन्न होता है (साध्य) क्योंकि यह ज्ञान हैं, जैसे “मैं गूमड़ा वाला हूँ, मैं कृष्ण वर्ण वाला हूँ" इत्यादि जो ज्ञान होता है- वह इन्द्रियों से उत्पन्न होता है। अनुमान की बाधा का सद्भाव होने से “मैं सुखी हूँ" इस ज्ञान को इन्द्रियों की अपेक्षा से रहित है- ऐसा कहना अनुमानबाधित है। अत: इसको अभ्रान्त कहना ठीक नहीं है। समाधान : जैनाचार्य कहते हैं कि चार्वाक द्वारा कथित अनुमान सामान्य इन्द्रिय की अपेक्षा रखता है या बाह्य चक्षु आदि इन्द्रियों की अपेक्षा रखता है? . प्रथम पक्ष में वह अनुमान हमारे अनुमान को बाधक सिद्ध नहीं कर सकता है। क्योंकि मन रूप अंतरंग इन्द्रिय की अपेक्षा रखने वाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है, यह हमको इष्ट है। अर्थात् “मैं सुखी हूँ" यह स्वसंवेदन मानसप्रत्यक्ष है। द्वितीय पक्ष (बाह्य इन्द्रियों के द्वारा सुख आदि का अनुभव होता है) में प्रतीतियों से विरोध आता है। क्योंकि अपने आप ज्ञात होने वाले उस स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के बहिरंग इन्द्रियों की अपेक्षा रखना प्रतीत नहीं होता है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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