________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 126 न च क्ष्मादिविवर्तात्मके चैतन्यविशिष्टकायलक्षणे पुंसि स्वसंवेदनं संभवति, येन ततो(तरमात्मानं न प्रसाधयेत् / स्वसंवेदनमसिद्धमित्यत्रोच्यते; स्वसंवेदनमप्यस्य बहिःकरणवर्जनात् / अहंकारास्पदं स्पष्टमबाधमनुभूयते // 103 // न हीदं नीलमित्यादि प्रतिभासनं स्वसंवेदनं बाटेंद्रियजत्वादनहंकारास्पदत्वात्, न च तथाहं सुखीति प्रतिभासनमिति स्पष्टं तदनुभूयते। गौरोहमित्यवभासनमनेन प्रत्युक्तं, करणापेक्षत्वादहं नहीं है। क्योंकि स्याद्वाद मत में कथित हेतु में 'सर्वदा' यह विशेषण लगा हुआ है। अर्थात् सर्व देश, काल में और सर्व पुरुषों में बाधाओं से रहित जो ज्ञान होता है वही अभ्रान्त और प्रामाणिक है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु आदि की पर्याय रूप चैतन्य शक्ति से विशिष्ट ऐसी काय (शरीर) लक्षण आत्मा में स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना संभव नहीं है जिससे शरीर से पृथक् आत्मा की सिद्धि नहीं होती है। अर्थात् स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा शरीर से भिन्न आत्मा स्वयं प्रसिद्ध है। यहाँ आत्मा का स्वसंवेदन प्रत्यक्ष के द्वारा जान लेना ही असिद्ध है? ऐसा कहने पर आचार्य कहते हैं ____आत्मा का बहिरंग इन्द्रियों से रहित तथा 'मैं' 'मैं' इस प्रकार की प्रतीति का स्थान और बाधा रहित, विशद रूप से स्वसंवेदन प्रत्यक्ष होना भी अनुभव में आ रहा है। अर्थात् प्रत्येक प्राणी 'मैं हूँ, मेरा मस्तक दु:ख रहा है, मुझे आज बहुत आनन्द आया' इत्यादि रूप से स्वसंवेदन से शरीर से भिन्न आत्मा का अनुभव कर रहे हैं / / 103 / / . 'यह नीला है', 'यह माता है' इत्यादि ज्ञान आत्मा और आत्मीय तत्त्वों के जानने वाले स्वसंवेदन प्रत्यक्ष रूप नहीं है, क्योंकि ऐसा ज्ञान तो बहिरंग चक्षुरादिक इन्द्रियों से उत्पन्न है, तभी तो नीला आदि के ज्ञान में मैं इत्याकारक-अहं आकार (अर्थ विकल्प) को भरने वाली बुद्धि के स्थान नहीं है। परन्तु 'मैं सुखी हूँ, मैं ज्ञानवान् हूँ' इत्यादि प्रतिभास तो विशद रूप से अनुभव में आ रहे हैं, स्वसंवेदन रूप हैं। ये ज्ञान बाह्य इन्द्रियजन्य नहीं हैं और 'अहं-अहं' इस प्रतीति के आधार भी हैं। अतः यह ज्ञान स्वसंवेदन रूप है- जिससे आत्मा का अनुभव हो रहा है। ___ "मैं गौरा हूँ, मैं स्थूल हूँ" यह ज्ञान भी 'अहं' प्रत्यय के अवलम्बन से होता है अतः गौरा आदि शरीर रूप से स्वसंवेदन का आधार शरीर को ही मानना चाहिए। इस प्रकार चार्वाक का कहना भी जो "बाह्य इन्द्रियजन्य है, वह स्वसंवेदन नहीं है" इस पूर्वोक्त कथन से खण्डित हो जाता है। क्योंकि जैसे मैं गूमड़े वाला हूँ, यह ज्ञान बाह्य इन्द्रियों की अपेक्षा से होता है- अतः अहंबुद्धि का आधार होते हुए भी स्वसंवेदन रूप नहीं है वैसे ही 'मैं गौरा हूँ, स्थूल हूँ' यह ज्ञान भी चक्षु इन्द्रिय और स्पर्श इन्द्रिय का विषय है, इसलिये स्वसंवेदन रूप नहीं है।