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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 125 * स्वसंवेदनतः सिद्धः सदात्मा बाधवर्जितात्। तस्य क्ष्मादिविवर्तात्मन्यात्मन्यनुपपत्तितः // 102 // क्षित्यादिपरिणामविशेषश्चेतनात्मकः सकललोकप्रसिद्धमूर्तिरात्मा ततोऽन्यो न कश्चित्प्रमाणाभावादिति कस्य सर्वज्ञत्ववीतरागत्वे मोक्षो मोक्षमार्गप्रणेतृत्वं स्तुत्यता मोक्षमार्गप्रतिपित्सा वा सिद्ध्येत् / तदसिद्धौ च नादिसूत्रप्रवर्तनं श्रेय इति योप्याक्षिपति सोऽपि न परीक्षकः। स्वसंवेदनादात्मनः सिद्धत्वात् / स्वसंवेदनं भ्रांतमिति चेत्, न तस्य सर्वदा बाधवर्जितत्वात् / प्रतिनियतदेशपुरुषकालबाधवर्जितेन विपरीतसंवेदनेन व्यभिचार इति न मंतव्यं, सर्वदेति विशेषणात् / आत्मा स्वसंवेदन प्रत्यक्ष है प्रमाण के दो भेद हैं- परोक्ष और प्रत्यक्ष। प्रत्यक्ष प्रमाण के दो भेद हैं, सांव्यवहारिक और पारमार्थिक / सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष इन्द्रिय और मन के निमित्त से होता है। इसका एक भेद स्वसंवेदन प्रत्यक्ष भी है। सारे संसारी प्राणियों को आत्मा तथा उसकी ज्ञान आदि पर्यायें स्वसंवेदन प्रत्यक्ष की विषय हैं। उसी के द्वारा आचार्य आत्मा की सिद्धि करते हैं। - बाधक प्रमाण से रहित स्वसंवेदन ज्ञान के द्वारा आत्मा सदाकाल सिद्ध है। उस आत्मा को पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन चार भूतों की पर्याय कहना उचित नहीं है। क्योंकि पृथ्वी आदि चार भूतों की पर्याय रूप जड़ आत्मा स्वसंवेदन ज्ञान का विषय नहीं हो सकती॥१०२॥ चार्वाक दर्शन : शरीर ही आत्मा है ... चार्वाक का कथन है कि - __पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु की विशेष पर्याय ही चेतनधारी आत्मा है तथा चैतन्य शक्ति से युक्त मूर्तिमान शरीर ही सम्पूर्ण लोक में 'आत्मा' इस नाम से प्रसिद्ध है। शरीर से भिन्न आत्मा को जानने वाले प्रमाण का अभाव होने से जीवित शरीर से भिन्न कोई आत्मा नहीं है। तब किसके सर्वज्ञता और वीतराग गुणों के प्रगट होने पर मोक्ष हो सकता है? और कौन मोक्षमार्ग का उपदेष्टा हो सकता है? कौन मुनीन्द्रों के द्वारा स्तुति करने योग्य होता है? तथा किसको मोक्षमार्ग जानने की इच्छा हो सकती है? वा इनकी सिद्धि हो सकती है? आत्मा की असिद्धि होने पर सर्वज्ञता आदि धर्म किसी के भी सिद्ध नहीं हो सकते हैं। तथा आत्मा की सिद्धि नहीं होने पर 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' इस आदिसूत्र की रचना भी श्रेयस्कर नहीं है। क्योंकि धर्मीआत्मा के अभाव में 'सम्यग्दर्शन आदि धर्मों का कथन करना उचित नहीं होता।' स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा शरीर से भिन्न आत्मा प्रसिद्ध है - जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार चार्वाक जो आक्षेप करता है, आत्मा के अस्तित्व का निषेध करता है, वह भी परीक्षक (तत्त्वों की परीक्षा करने वाला) नहीं है। क्योंकि स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान के द्वारा शरीर से भिन्न आत्मा प्रसिद्ध है। वह स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान भ्रान्त है- ऐसा भी नहीं कह सकते। क्योंकि आत्मा को जानने वाला स्वसंवेदन प्रत्यक्ष ज्ञान सर्वकाल में बाधारहित है और बाधाओं से रहित ज्ञान कभी भ्रान्त नहीं हो सकता। प्रतिनियत देश, पुरुष और काल की बाधाओं से रहित विपरीत संवेदन से व्यभिचार आता है। क्योंकि भ्रान्त ज्ञान भी प्रतिनियत देश, काल और पुरुष की बाधा से रहित है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार कहना उचित
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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