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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 109 तथागतोपकार्यस्य जगतोऽनंतता यदि। सर्वदावस्थितौ हेतुर्मत: सुगतसंततेः // 79 // खगिनोप्युपकार्यस्य स्वसंतानस्य किं पुनः / न स्यादनंतता येन तन्निरन्वयनिर्वृतिः॥८॥ स्वचित्तशमनात्तस्य संतानो नोत्तरत्र चेत् / नात्मानं शमयिष्यामीत्यभ्यासस्य विधानतः / / 81 // न चांत्यचित्तनिष्पत्तौ तत्समाप्तिर्विभाव्यते / तत्रापि शमयिष्यामीत्येष्यचित्तव्यपेक्षणात् / / 8 / / चित्तान्ततरसमारंभि नान्त्यं चित्तमनास्त्रवम्। सहकारिविहीनत्वात्तादृग्दीपशिखा यथा // 83 // इत्ययुक्तमनैकांतादुद्धचित्तेन तादृशा। हितैषित्वनिमित्तस्य सद्भावोऽपि समो द्वयोः / / 84 // "उस खड्गी के अपने ज्ञानस्वरूप आत्मा का सर्वदा के लिए शमन हो जाता है- सर्वथा अन्वय टूट जाता है, इसलिए उत्तरकाल में खड्गी (के चित्त) की संतान नहीं रहती है।" बौद्ध का ऐसा कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि “मैं आत्मा का शमन करूंगा" इस प्रकार के अभ्यास के विधान से अन्त्य (अन्तिम होने वाले) चित्त (आत्मा) की समाप्ति होने की भावना नहीं भाई जाती है। उस भावना में "आत्मा का शमन करूंगा" ऐसी भावना का खगी अभ्यास कर रहा है। अतः उस चित्त की अपेक्षा से आगे भी संतान चलेगी। दीपक के समान निरन्वय होकर ज्ञानसंतान का नाश हो जाने रूप मोक्ष खगी के नहीं बन सकता है॥७९-८२॥ .. बौद्ध- सहकारी कारणों से रहित होने से खड्गी के अन्त का आस्रव रहित चित्त अन्य चित्तों को धारा रूप से उत्पन्न नहीं करता है। जैसे तैल, बत्ती आदि सहकारी कारणों से रहित अन्त की दीपशिखा पुनः दूसरी दीपशिखा को उत्पन्न नहीं कर सकती है। जैनाचार्य- बौद्धों का इस प्रकार का कथन भी युक्तिसंगत नहीं है. क्योंकि सहकारी कारण रहित हेतु का बुद्ध के चिन के साथ ही व्यभिचार आता है। अर्थात् सहकारी कारण रहित होकर भी बुद्ध की चित्त संतान अनन्त काल तक चलती रहती है और खड्गी की संतान नहीं चलती है अतः यह हेतु विपक्ष में जाने से अनैकान्तिक है॥८३-८४॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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