________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 110 चरमत्वविशेषस्तु नेतरस्य प्रसिद्ध्यति। ततोऽनंतर-निर्वाणसिद्ध्यभावात्प्रमाणतः // 5 // खड्गिनो निराम्रवं चित्तं चित्तांतरं नारभते जगद्धितैषित्वाभावे चरमत्वे च सति सहकारिरहितत्वात् तादृग्दीपशिखावदित्ययुक्तं, सहकारिरहितत्वस्य हेतोर्बुद्धचित्तेनानैकांतात्, तद्विशेषणस्य हितैषित्वाभावस्य चरमत्वस्य चाऽसिद्धत्वात् / समानं हि तावद्धितैषित्वं खगिसुगतयोरात्मजगद्विषयं / सर्वविषयं हितैषित्वं खड्गिनो नास्त्येवेति चेत्, सुगतस्यापि कृतकृत्येषु तदभावात् / तत्र तद्भावे वा सुगतस्य यत्किंचनकारित्वं प्रवृत्तिनैष्फल्यात् / यत्तु हित की अभिलाषा से भविष्य में ज्ञानसंतान चलने के निमित्त का सद्भाव दोनों में समान हैक्योंकि जैसे बुद्ध को जगत् का हित करने की अभिलाषा है- वैसे खड्गी को भी अपने हित की अभिलाषा है। . खड्गी के विज्ञान में अन्त में होने वाला यह विशेष भी सिद्ध नहीं है। क्योंकि बुद्ध के समान खड्गी भी वस्तु है और वस्तु अनन्त काल तक परिणमन करती है। अतः प्रमाण के द्वारा अन्तर रहित (निरन्वय) नाश रूप निर्वाण सिद्ध नहीं हो सकता है।८५॥ . "खड्गी नामक मुक्तात्मा का निराम्रव चित्त चित्तान्तर को उत्पन्न नहीं करता है। क्योंकि खड्गी का चित्त जगत् के हित की अभिलाषा से रहित है और अन्तिम होता हुआ सहकारी कारणों से रहित है। जैसे सहकारी कारणों तैल बाती आदि से रहित होने से दीपक दूसरी दीपकलिका को उत्पन्न नहीं करता है, बुझ जाता है।" जैनाचार्य कहते हैं- ऐसा कहना युक्तिसंगत नहीं है- क्योंकि उक्त अनुमान में कथित सहकारी रहितत्व हेतु का बुद्धचित्त के साथ व्यभिचार आता है। अर्थात् बुद्ध का चित्त सहकारी कारणों से रहित होकर भी चित्तान्तर का उत्पादक होता है। और उस हेतु के 'हितैषी न होना' तथा 'अन्तिमपना' ये दो विशेषण भी असिद्ध हैं। अर्थात् ये विशेषण खड्गी रूप हेतु में घटित नहीं होते हैं। अतः यह हेतु असिद्ध हेत्वाभास है। क्योंकि बुद्ध की जगत् के हित की अभिलाषा और खड्गी की आत्मा के शमन की अभिलाषा- ये दोनों ही अभिलाषाएँ समान हैं। .. 'खड्गी के सम्पूर्ण जीवों में हितैषिता नहीं है, आत्मशमन की ही भावना है,' ऐसा बौद्धों के कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि “जो आत्माएँ कृतकृत्य हो चुकी हैं, उनके प्रति सुगत की भी हितैषिता नहीं है। अतः सुगत की सब जीवों में हितैषिता कैसे सिद्ध होती है? मुक्तिप्राप्त, कृतकृत्य जीवों में भी सुगत की हितैषिता का सद्भाव स्वीकार करने पर तो सुगत के कुछ भी व्यर्थ कार्य करते रहने का प्रसंग आयेगा। अर्थात् सुगत निष्फल प्रवृत्ति करता रहेगा।