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________________ +5+ चारित्ररूपी रथ पर आरूढ़ होकर ब्र. कैलाशचन्द जी आचार्य वर्धमानसागर जी के मार्गदर्शन में उनके करकमलों द्वारा मोक्षमार्ग की ओर बढ़े। नाम पाया ऐलक नमितसागर। ___ इस तरह गुलाबीनगरी में, वास्तव में, गुलाब की गन्ध बिखेरी आर्यिका मुपार्श्वमतीजी ने अपने करुणामयी स्वभाव से, अपने वात्सल्य से, अपनी कठोर साधना से, अपने दृढ़ चारित्र से और अपनी मोहक शैली के प्रवचनों से। ____ काल की गति रुकती नहीं। आर्यिकाश्री ने वर्षायोग पूर्ण कर कूच किया मारवाड़ की धरती की ओर / दुर्गम रास्तों, दुरूह मौसमी तेवरों का सामना करते हुए मारवाड़ प्रांत के अनेक ग्रामों-नगरों में धर्मसुधा प्रवाहित करते हुए आर्यिकासंघ का अविस्मरणीय मंगल प्रवेश नागौर नगरी में हुआ। यह वही नागौर है जहाँ 67 वर्ष पूर्व आर्यिकाश्री ने सेठ छोगमलजी बड़जात्या की बहू के रूप में प्रवेश किया था। आज नारीजीवन के सर्वोच्च पद गणिनी आर्यिकाश्री के रूप में माताजी का आगमन नागौर- वासियों के लिए महान् पुण्य का उदय है। साठ वर्षों के अंतराल ने पत्थर को आकार दिया, कोयले को हीरा बनाया और अनपढ़ अबोध बालिका को जनमानस में पूज्य परम विदुषी गणिनी आर्यिकाश्रेष्ठ पद पर आसीन किया। एक समय था जब संसार को बढ़ाने की खुशी में समाज का योगदान था और एक समय आज का है जब जनमानस संसार से मुक्त होने की दिशा में अग्रसर आर्यिकाश्री के धर्मानुबंध में सहयोगी बनने को आतुर है। यही तो सच्चे सुख को पाने की राह : वधू के रूप में अपनाने वाली नागौर नगरी का उपकार करने हेतु ही मानों आर्यिकाश्री का पावन वर्षायोग यहाँ हो रहा है। आग में तपने पर कंचन का खरापन निखरता है, त्याग-तपस्या की अग्नि से निकलकर आर्यिकाश्री के ज्ञान का भंडार समृद्ध हुआ। आपने लेखनी का अवलम्बन लेकर ज्ञान के अनेक सोपानों को पुस्तकाकार दिया। मानवजीवन के लिए इससे बढ़कर उपकार क्या होगा ! आज भी आर्यिकाश्री की लेखनी और वक्तव्य शैली अपनी अलग छाप रखती हैं। आर्यिकाश्री की पवित्र लेखनी के कुछ प्रसून हैं तत्त्वार्थ राजवार्तिक-भाग 1 एवं 2, तत्त्वार्थवृत्ति, अष्टपाहुड़, आचारसार, नीतिसारसमुच्चय, मेरा चिन्तवन, पाण्डवपुराण, नेमिनाथपुराण, वरांगचरित्र, नारी का चातुर्य, दशलक्षण धर्म, प्रतिक्रमण पंजिका, नैतिक शिक्षाप्रद कहानियाँ - भाग 1 से भाग 8, इत्यादि एवं जैनदर्शन के सबसे क्लिष्ट एवं न्यायपूरित ग्रंथराज तत्त्वार्थश्लोक-वार्तिकालंकार का प्रथम खण्ड आपके हाथों में है। शेष खण्ड भी क्रमशः प्रकाशित होंगे। अन्य टीका-कृतियाँ हैं-स्तुतिविद्या (समन्तभद्र), आराधनासार (देवसेन), रत्नकरण्डश्रावकाचार / ... ऐसी विलक्षण प्रतिभा को कोटि-कोटि वंदन, कोटि-कोटि नमन / - ब्र. (डॉ.) प्रमिला जैन, संघस्थ 听听听
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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