________________ +6+ // सम्पादकीय आचार्य उमास्वामी विरचित तत्त्वार्थसूत्र/मोक्षशास्त्र जैनधर्म और जैनदर्शन का एक अत्यन्त प्रसिद्ध, प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पवित्र ग्रन्थ है। इसमें जीव की बन्धन-मुक्ति के कारणों का सामोपा विवेचन है। जैन वाङ्मय के तीनों अनुयोगों-करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग की मान्यताओं का व्यवस्थित रूप से सूक्ष्म निदर्शन कराने वाला यह अद्वितीय सिद्धान्त ग्रन्थ दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों परम्पराओं में थोड़े बहुत पाठभेद के साथ समान रूप से समादरणीय है। दोनों परम्पराओं के आचार्यों ने इस पर टीका ग्रन्थ लिखे हैं। इस ग्रन्थ से जैन परम्परा में संस्कृत भाषा में ग्रन्थनिर्माण- युग प्रारम्भ होता है। संस्कृत भाषा में सूत्रशैली में रचित यह पहला जैन सूत्रग्रन्थ है। ग्रन्थ के दस अध्यायों में कुल 357 सूत्र हैं। सबसे छोटे सूत्र एक-दो शब्दों के हैं और अधिकांश पाँच-सात शब्दों से अधिक दीर्घ नहीं हैं। इस ग्रन्थ के मात्र पाठ या श्रवण का फल एक उपवास बताया गया है। ग्रन्थ के मंगलाचरण रूप प्रथम श्लोक पर ही आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा (देवागम स्तोत्र) की रचना की थी जिस पर अकलंकदेव ने 800 श्लोक प्रमाण अष्टशती नाम की टीका की। आचार्य विद्यानन्द ने इस अष्टशती पर 8000 श्लोक प्रमाण अष्टसहस्री नाम की व्याख्या की। इनके अतिरिक्त भी इस ग्रन्थ पर इतने काल में अनेक भाष्य, वृत्ति, टीकाएँ आदि लिखी गईं। कतिपय प्रमुख कृतियाँ इस प्रकार हैं (1) आचार्य समन्तभद्र (ई.२) विरचित 9600 श्लोक प्रमाण गन्धहस्ति महाभाष्य (2) श्री पूज्यपाद (ई.श.६) विरचित सर्वार्थसिद्धि (3) आचार्य उमास्वाति कृत (ई.श.६) तत्त्वार्थाधिगम भाष्य (संस्कृत) (4) योगीन्द्रदेव विरचित तत्त्वप्रकाशिका (ई.श.६) (5) श्री अकलंक भट्ट (ई.६४०-६८०) विरचित तत्त्वार्थराजवार्तिक (6) श्री विद्यानन्दि (ई.७७५-८४०) विरचित श्लोकवार्तिक (7) श्री अभयनन्दि (ई.श.१०-११) विरचित तत्त्वार्थवृत्ति (8) आचार्य शिवकोटि (ई.श.११) द्वारा रचित रत्नमाला नाम की टीका (9) आचार्य भास्करनन्दि (ई.श.१३) कृत सुखबोध नामक टीका (10) आचार्य बालचन्द्र (ई.१३५०) कृत कन्नड़ टीका (11) विबुधसेनाचार्य विरचित तत्त्वार्थटीका (12) योगदेव विरचित तत्त्वार्थवृत्ति (13) लक्ष्मीदेव विरचित तत्त्वार्थटीका (14) आ. श्रुतसागर (ई.१४७३-१५३३) कृत तत्त्वार्थवृत्ति (श्रुतसागरी) (15) द्वितीय श्रुतसागर विरचित तत्त्वार्थ सुखबोधिनी (16) पं. सदासुख (ई.१७९३-१८६३) कृत अर्थप्रकाशिका टीका। इनके अतिरिक्त श्वेताम्बराचार्य सिद्धसेनगणि और हरिभद्रसूरि की टीकायें भी उल्लेखनीय हैं। आचार्य समन्तभद्र कृत गन्धहस्ति महाभाष्य नामक टीका दुर्भाग्य से आज उपलब्ध नहीं है। परन्तु अन्य ग्रन्थों में इसके उल्लेखों से स्पष्ट है कि इस ग्रन्थ की रचना अवश्य हुई है। पूज्यपाद स्वामी की सर्वार्थसिद्धि नामक टीका तत्त्वार्थसूत्र की उपलब्ध टीकाओं में प्रथम टीका है। इसमें प्रमेय का विचार आगमिक, दार्शनिक आदि सभी पद्धतियों से किया गया है। तदनन्तर अकलंकदेवकृत तत्त्वार्थराजवार्तिक अपनी प्राचीनता, प्रामाणिकता एवं विषयगाम्भीर्य और विस्तार आदि गुणों के लिए श्रेष्ठ टीका मानी जाती है। इस वार्तिक में 'सर्वार्थसिद्धि' का अच्छा विस्तार किया गया है, शैली न्यायप्रचुर है, अधिकांश सुबोध है पर कहीं-कहीं जटिल भी। इसके रचयिता ने अपने से पूर्व की सिद्धान्त और न्याय सम्बन्धी सामग्री और परम्परा का अच्छा उपयोग किया है। परवर्ती रचनाकारों पर इस रचना का गम्भीर प्रभाव परिलक्षित होता है। उपर्युक्त आचार्यत्रयी के अनन्तर 'तत्त्वार्थसूत्र' पर जिस महत्त्वपूर्ण भाष्य की रचना हुई है, वह आचार्यश्री विद्यानन्द स्वामी की यही प्रस्तुत कृति है तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकालंकार। इसके अन्य माम हैं- तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक