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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक- 97 समवायिनोनित्यत्वकादाचित्कत्वाभ्यां समवाये तत्प्रत्ययोत्पत्तौ संयोगिनो: शिथिलत्वनिबिडत्वाभ्यां संयोगे तथा प्रत्ययः स्यात् / स्वत: संयोगिनोर्निबिडत्वे संयोगोऽनर्थक इति चेत्, स्वतः समवायिनोनित्यत्वे समवायोऽनर्थकः किं न स्यात् / इहेदं समवेतमिति प्रतीतिः समवायस्यार्थ इति चेत्, संयोगस्येहेदं संयुक्तमिति प्रतीतिरर्थोऽस्तु / ततो न संयोगसमवाययोर्विशेषोऽन्यत्र विष्वग्भावाविष्वग्भावस्वभावाभ्यामिति तयोर्नानात्वं कथंचित्सिंद्धं / समवायस्य नानात्वे अनित्यत्वप्रसंगः संयोगवदिति चेत् / न। आत्मभिर्व्यभिचारात्, कथंचिदनित्यत्वस्येष्टत्वाच्च / किं च अनाश्रयः कथं चायमाश्रयैर्युज्यतेऽञ्जसा। तद्विशेषणता येन समवायस्य गम्यते // 72 / / कादाचित्कत्व होने से उनका समवाय सम्बन्ध मानना व्यर्थ क्यों नहीं होगा। अर्थात् समवायियों को यदि स्वभाव से ही नित्यपना और अनित्यपना मानते हो तो समवाय सम्बन्ध व्यर्थ क्यों नहीं होगा। . (वैशेषिक कहते हैं. कि) “इसमें यह समवाय सम्बन्ध से विद्यमान है। जैसे घट में रूप और आत्मा में ज्ञान है" इस प्रकार प्रतीति कराना ही समवाय का प्रयोजन है- अतः समवाय व्यर्थ नहीं है। तब तो संयोग की भी इसमें यह संयुक्त है' इस प्रकार के अर्थ की प्रतीति होती है। जैसे इसमें शिथिलपना है, इसमें कठोरपना है, इत्यादि ज्ञान होता है। इसलिए संयोग सम्बन्ध में और समवाय सम्बन्ध में कोई विशेषता नहीं है- अतः संयोग अनेक होने से समवाय भी अनेक होने चाहिए। ___ पृथक्भूत पदार्थों का सम्बन्ध संयोग कहलाता है और अपृथग्भूत सम्बन्ध समवाय कहलाता है। जैसे पुरुष का दण्ड के साथ सम्बन्ध संयोग सम्बन्ध है। और अपृथग्भूत सम्बन्ध समवाय सम्बन्ध है- जैसे आत्मा में ज्ञान। इस प्रकार संयोग सम्बन्ध और समवाय सम्बन्ध में कथंचित् नानापना सिद्ध समवाय के नानात्व स्वीकार करने पर संयोग के समान समवाय के भी अनित्यत्व का प्रसंग आयेगा, ऐसा कहना उचित नहीं है। क्योंकि जो अनेक होते हैं- वे अनित्य होते हैं; ऐसा मानने पर आत्मा के साथ व्यभिचार आता है क्योंकि वैशेषिक ने आत्माएँ अनेक मानी हैं परन्तु उनको अनित्य नहीं माना है। परन्तु कथंचित् समवाय (तादात्म्य) सम्बन्ध को अनित्य मानना इष्ट भी है। जैसे आत्मा में घटज्ञान उत्पन्न होता है, वह पटज्ञान होने पर नष्ट हो जाता है। मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान होने पर नष्ट हो जाता है। अतः कथंचित् समवाय सम्बन्ध अनित्य है। सभी पदार्थ उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य स्वरूप हैं। किंच- सम्बन्ध दो में होता है- परन्तु तुम्हारा स्वीकृत अनाश्रय (किसी के आश्रय नहीं रहने वाला) यह समवाय शीघ्र ही आश्रयों के साथ कैसे सम्बन्ध को प्राप्त हो जाता है; जिससे कि समवाय सम्बन्ध की समवायी में विशेषणता मानी जाती है॥७२॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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