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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक- 96 न हि, संयोगः प्रतिविशेष्यं विशिष्टो नाना न भवति दंडपुरुषसंयोगात् पटधूपसंयोगस्याभेदाप्रतीतेः / संयोगत्वेनाभेद एवेति चेत्, तदपि ततो यदि भिन्नमेव तदा कथमस्यैकत्वे संयोगयोरेकत्वं? तन्नाना संयोगोऽभ्युपेयोऽन्यथा स्वमतविरोधात् / तद्वत्समवायोऽनेकः प्रतिपद्यतां; ईश्वरज्ञानयोः समवायः, पटरूपयो: समवाय इति विशिष्टप्रत्ययोत्पत्तेः। समवायिविशेषात्समवाये विशिष्टः प्रत्यय इति चेत्, तर्हि संयोगिविशेषात्संयोगे विशिष्टप्रत्ययोऽस्तु। शिथिलः संयोगो, निबिडः संयोग इति प्रत्ययो यथा संयोगे तथा नित्यं समवायः कदाचित्समवाय इति समवायेऽपि / प्रत्येक विशेष्य में विशिष्ट होकर रहने वाला संयोग सम्बन्ध अनेकरूप नहीं है, ऐसा नहीं. समझना चाहिए। क्योंकि दण्ड और पुरुष के संयोग से पट (कपड़ा) और धूप के संयोग में अभेद की प्रतीति नहीं हो रही है-अर्थात वे भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं। यदि कहो कि संयोग में भेद होते हुए भी संयोग गुण में रहने वाली संयोग जाति की अपेक्षा अभेद ही है, तो जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर भी सम्पूर्ण संयोग एक नहीं है, क्योंकि उन संयोग नामक गुणों में रहने वाली वह संयोगत्व जाति भी यदि अपने आधारभूत संयोगों से सर्वथा भिन्न ही है तो उस भिन्न जाति के एक होने पर भी इन दो संयोगों में एकपना कैसे आ सकता है? इसलिए नाना संयोग स्वीकार करना चाहिए, अन्यथा आपके सिद्धान्त में विरोध आता है। इस संयोग सम्बन्ध के समान ही समवाय सम्बन्ध भी अनेक मानने चाहिए। अतः ईश्वर के साथ ज्ञान का समवाय सम्बन्ध भिन्न है और पट के साथ रूप आदि का समवाय सम्बन्ध भिन्न है। इत्यादि विशिष्ट ज्ञानों के होने से समवाय भी अनेक प्रकार का सिद्ध होता है। नैयायिक कहता है कि समवायिविशेष से समवाय में भी विशिष्ट-विशिष्ट रूप के ज्ञान हो जाते हैं। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार तो संयोगी विशेष से संयोग में भी विलक्षणता को जानने वाला ज्ञान उत्पन्न हो जायेगा। जैसे संयोग में शिथिल संयोग, घट संयोग (निविड़ संयोग) इत्यादि प्रत्यय (ज्ञान) होता है, उसी प्रकार नित्य समवाय, कदाचित्समवाय इत्यादि समवाय में भी प्रत्यय होता है। अतः संयोग सम्बन्ध के समान समवाय सम्बन्ध को भी अनेक रूप मानना चाहिए। समवाय सम्बन्ध के आधारभूत आत्मा आकाश आदि के नित्य होने से समवाय में भी वह नित्यपन कल्पित जान लिया जाता है और समवायी माने गये ज्ञान, काला, लाल, रूप के अनित्य होने से समवाय में भी अनित्यपने का ज्ञान उपज जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि इस प्रकार समवायी के भेद से समवाय में भेद-कल्पना मानना वास्तविक नहीं। क्योंकि शिथिल, निबिड़त्व आदि के द्वारा संयोगी के भेद से संयोग में भेद मानना वास्तविक नहीं। संयोग को एक ही मानो। नैयायिक कहता है कि ऐसे तो स्वयं संयोगी पदार्थ के शिथिलता, निबिड़त्व मानने पर संयोग मानना व्यर्थ हो जाता है। जैनाचार्य कहते हैं कि ऐसा मानने पर समवायी भी स्वयं नित्य और
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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