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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 95 कस्मात् समवायो हि सर्वत्र न विशेषकदेककः। कथं खादीनि संत्यज्य पुंसि ज्ञानं नियोजयेत् / / 70 // यस्मात् “सर्वेषु समवायिष्वेक एव समवायस्तत्त्वं भावेन व्याख्यातम्" इति वचनात् / तस्मात्तेषां विशेषकृन्न नाम येन पुंस्येव ज्ञानं विनियोजयेदाकाशादिपरिहारेण इति बुद्ध्यामहे / सत्तावदेकत्वेऽपि समवायस्य प्रतिविशिष्टपदार्थविशेषणतया विशेषकारित्वमिति चेत्, तर्हि विशिष्टः समवायः प्रतिविशेष्यं सत्तावदेव इति प्राप्तो द्वितीयः पक्षः। तत्र च विशिष्टः समवायोऽयमीश्वरज्ञानयोर्यदि। तदा नानात्वमेतस्य प्राप्तं संयोगवन्न किम् // 71 // संयोग और समवाय सम्बन्ध . यदि नैयायिक कहता है कि समवाय सम्बन्ध से ईश्वर के ज्ञानाश्रयता है? तो जैनाचार्य कहते हैं कि ईश्वर में ज्ञान का सम्बन्ध कराने वाला वह समवाय अविशिष्ट (सामान्य) है कि विशिष्ट (विशेष) है? प्रथम विकल्प (सामान्य समवाय) तो ईश्वर के साथ ज्ञान का आश्रय करा नहीं सकता क्योंकि समवाय तो सर्वत्र एक ही है विशेषकृत नहीं है अतः वह सामान्य समवाय आकाश पृथ्वी आदि को छोड़कर आत्मा में ही ज्ञान को कैसे नियुक्त करता है? // 70 // / यौगों ने सर्व आत्मा आदि समवायियों में एक ही तत्त्वरूप समवाय स्वीकार किया है। क्योंकि 'सर्व समवायियों में तत्त्वरूप से एक ही समवाय है' ऐसा कणाद ऋषि का (वैशेषिक दर्शन में) वचन है अतः समवाय में कोई अतिशय नहीं है, जिससे वह अतिशयधारी समवाय आकाश आदि पदार्थों को छोड़कर ज्ञान का आत्मा के साथ ही सम्बन्ध करा देता है। इस बात को हम समझते हैं। . सत्ता के समान समवाय के एकपना होने पर भी प्रत्येक विशिष्ट पदार्थ की विशेषणता से विशेषपना है। अर्थात् वैशेषिक कहते हैं कि जिस प्रकार भिन्न भिन्न द्रव्य, गुण कर्म में रहने वाली एक सत्ता द्रव्य की सत्ता, गुण की सत्ता, कर्म की सत्ता आदि विशेषता कर देती है, उसी प्रकार समवाय के एक होने पर भी विशिष्ट पदार्थों में रहने वाला समवाय “विशेष्य के भेद होने से विशेषण में भी भेद हो जाता है" इस नियम के अनुसार आकाश आदि को छोड़कर ज्ञान का आत्मा के साथ सम्बन्ध करा देता है। जैनाचार्य कहते हैं कि यदि नैयायिक ऐसा कहते हैं तब तो सामान्य से समवाय माननायह पहला पक्ष गया। प्रत्येक विशेष्य में सत्ता जाति के समान विशिष्ट प्रकार का समवाय है, इस प्रकार नैयायिकों ने दूसरे पक्ष का आलम्बन लिया है, उसमें क्या दोष है, इसका कथन करते हैं_ . यदि ईश्वर का और ज्ञान का विलक्षण विशिष्ट समवाय सम्बन्ध है तब तो संयोग सम्बन्ध के समान समवाय सम्बन्ध भी नानापने को प्राप्त क्यों नहीं होगा? अवश्य होगा॥७१ //
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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