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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 98 येषामनाश्रयः समवाय इति मतं तेषामात्मज्ञानादिभिः समवायिभिः कथं संबध्यते? संयोगेनेति चेन्न / तस्याद्रव्यत्वेन संयोगानाश्रयत्वात्। समवायेनेति चायुक्तं / स्वयं समवायांतरानिष्टेः। विशेषणभावेनेति चेत. कथं समवायिभिरसंबद्धस्य तस्य तद्विशेषणभावो निश्नीयते? समवायिनो विशेष्यात्समवायो विशेषणमिति प्रतीतेर्विशेषणविशेष्यभाव एव संबंधः समवायिभिः समवायस्येति चेत् / स तर्हि ततो यद्यभिन्नस्तद्वद्वा समवायिनां तादात्म्यसिद्धिरभिन्नादभिन्नानां तेषां तद्वद्भेदविरोधात् / जिन नैयायिक, वैशेषिकों के मत में समवाय सम्बन्ध को आश्रयरहित माना है उनके यहाँ आत्मा, ज्ञान और घट, रूप आदि के साथ समवाय किस तरह से सम्बन्धित होगा? आत्मा आदि के साथ ज्ञानादि का समवाय सम्बन्ध संयोग से होता है, ऐसा तो कह नहीं सकते हैं क्योंकि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य में संयोग सम्बन्ध से रहा करता है। जैसे दण्ड द्रव्य का संयोग सम्बन्ध पुरुष द्रव्य में होता है। परन्तु समवाय तो स्वयं द्रव्य नहीं है। अतः अद्रव्य समवाय के द्वारा संयोग का अनाश्रय होने से सम्बन्ध कैसे हो सकता है? अतः संयोग से सम्बन्ध मानना ठीक नहीं है। दूसरे, समवाय से इनका सम्बन्ध है, यह कथन इष्ट भी नहीं है। वैशेषिक कहता है- विशेषण भाव से ज्ञान का आत्मा के साथ सम्बन्ध है (अर्थात विशेष्य विशेषण सम्बन्ध है)। आचार्य कहते हैं कि यदि समवायियों के साथ समवाय का विशेषण-विशेष्य भाव सम्बन्ध मानोगे तो समवायी के द्वारा असम्बद्ध उस समवाय का विशेषण भाव ' कैसे निर्णीत किया जाता है। अर्थात् दूसरे सम्बन्ध से विशेष्य में विशेषण का सम्बन्ध निश्चय किये बिना विशेष्य विशेषण भाव नहीं बनता है। जैसे कि दण्ड और पुरुष का संयोग होने पर ही विशेषण-विशेष्य भाव सम्बन्ध माना जाता है, अन्यथा नहीं। समवायी (समवायवाले द्रव्यादिक पाँच पदार्थ तो) विशेष्य हैं, और उनमें रहने वाला एक समवाय विशेषण है, इस प्रकार प्रतीति होने से समवायियों के साथ समवाय का सम्बन्ध विशेषण-विशेष्य भाव है। जैनाचार्य कहते हैं कि वह विशेष्य विशेषण सम्बन्ध अपने सम्बन्धी समवाय और समवाय वाले आत्मा, ज्ञान आदि से यदि अभिन्न है तब तो समवाय वाले उन ज्ञान, आत्मा आदि का भी उस विशेष्यविशेषण सम्बन्ध के समान तादात्म्य सम्बन्ध सिद्ध होता है। क्योंकि अभिन्न से जो अभिन्न है, उनका भेद होना विरुद्ध है। अर्थात समवाय और समवाय वाले ज्ञान, आत्मा आदि पदार्थों के मध्य में स्थित विशेष्य-विशेषण भाव सम्बन्ध अपने दोनों सम्बन्धियों से अभिन्न है- तब तो उसके समान दोनों सम्बन्धियों का भी अभेद ही कहना चाहिए। क्योंकि अभिन्न विशेष्य विशेषण भाव से उसके सम्बन्धी अभिन्न ही होते हैं। अतः सम्बन्धियों में भी अभेद मानना पड़ेगा। यदि विशेष्य-विशेषण भाव को सर्वथा सम्बन्धियों से भिन्न ही माना जाता है तो यह विशेष्यविशेषण भाव उन सम्बन्धियों का है' यह व्यवहार कैसे होगा? क्योंकि सर्वथा भेद में 'यह उसका है, यह व्यवहार नहीं हो सकता। यदि दूसरे विशेष्य-विशेषण भाव से समवाय और समवायी में सम्बन्ध मानेंगे तो उपर्युक्त प्रश्न फिर 1. क्योंकि न्याय-वैशेषिक दर्शन में समवाय को एक माना गया है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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