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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्त्तिक - 86 साक्षादशेषतत्त्वज्ञानात्पूर्वमागमज्ञानबलाद्योगिनः श्रेयोमार्गोपदेशित्वमविरुद्धमज्ञत्वासिद्धेरिति न मंतव्यं / सर्वज्ञकल्पनानर्थक्यात्, परमतानुसरणप्रसक्तेश / योगिज्ञानसमकालं तस्य तदित्यप्यसारं तत्त्वज्ञानपूर्वत्वविरोधात्तदुपदेशस्य तत्त्वज्ञानात्पश्चात्तु मुक्तेः स्वस्येव वाग्वृत्त्यघटनात् शरीरत्वेनावस्थानासंभवाद्दूरे सन्मार्गोपदेशः॥ . - संस्कारस्याक्षयात्तस्य यद्यवस्थानमिष्यते। तत्क्षये कारणं वाच्यं तत्त्वज्ञानात्परं त्वया // 54 // के पूर्व वे भगवान् पामर (ग्रामीण पुरुष) के समान अज्ञानी ही होते हैं। पूर्ण ज्ञानी हो जाने पर भी वे मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दे सकते- क्योंकि ज्ञान के उत्पन्न होते ही संसार में अवस्थान न होने से वचन की प्रवृत्ति नहीं होती (वे शीघ्र ही मोक्ष में चले जाते हैं)। तथा जैसे आकाश की वचन में प्रवृत्ति नहीं होती है- वैसे ही मुक्तात्मा की उपदेश-प्रवर्त्तना कैसे हो सकती है? अर्थात् मुक्तात्मा शरीर से रहित होने से मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दे सकते।।५२-५३॥ ... (सांख्य मतानुसार) साक्षात् सम्पूर्ण पदार्थों को जानने वाले केवलज्ञान की प्राप्ति के पूर्व आगमज्ञान के बल से योगी के मोक्षमार्ग का उपदेश देना घटित हो जाता है। इसमें कोई विरोध नहीं है- क्योंकि ग्रामीण मानव को शास्त्रज्ञान नहीं है- वह मोक्षमार्ग का उपदेश नहीं दे सकता। योगी शास्त्रज्ञान के द्वारा मोक्षमार्ग का उपदेश दे सकता है। क्योंकि योगी में अज्ञानता की सिद्धि नहीं है। जैनाचार्य कहते हैंऐसा भी नहीं मानना चाहिए। क्योंकि श्रुतज्ञान के द्वारा मोक्षमार्ग के उपदेष्टा की सिद्धि हो जाने पर सर्वज्ञ की कल्पना ही व्यर्थ हो जाती है। तथा सर्वज्ञ को नहीं मानने वाले मीमांसक के मत के अनुसरण करने का प्रसंग आता है। पूर्ण प्रत्यक्ष ज्ञान के समान काल में ही वह योगी मोक्षमार्ग का उपदेश देता है, ऐसा कहना भी सार-रहित है (निष्प्रयोजन है) क्योंकि वह मोक्षमार्ग का उपदेश सर्वज्ञतापूर्वक होता है, इस कथन में विरोध आता है। यदि सर्वज्ञता के उत्पन्न होते ही उसी समय मोक्ष का उपदेश देना मानेंगे तो 'सम्पूर्ण तत्त्वों का प्रत्यक्ष ज्ञान हो जाने के पश्चात् मोक्ष का उपदेश होता है।' इस सिद्धान्त में विरोध आता है। क्योंकि तत्त्वज्ञान के होते ही मुक्ति हो जाने से अशरीरी के आकाश के समान वचन की प्रवृत्ति नहीं घट सकती (अर्थात् अशरीरी के वचनप्रवृत्ति नहीं हो सकती)। शरीर के साथ संसार में अवस्थान नहीं होने से (अर्थात् शरीर के साथ तत्त्वज्ञानी के रहने की असंभवता है) सन्मार्ग का उपदेश कैसे हो सकता है? उपदेश की बात तो दूर रही, शरीरी रूप से उसका अवस्थान भी असंभव है। - यदि कपिल कहे कि पूर्व संस्कार के क्षय नहीं होने से तत्त्वज्ञानी का संसार में अवस्थान रहता है तो जैन कहते हैं कि तत्त्वज्ञान से अतिरिक्त संसार के क्षय का कारण क्या है? यह तुमको कहना चाहिए। अर्थात् तत्त्वज्ञान से मोक्ष होता है वह तत्त्वज्ञान तो परिपूर्ण हो गया। अब जिन संस्कारों के कारण योगी संसार में रहकर धर्म का उपदेश देता है, उन संस्कारों का क्षय किन कारणों से होता है॥५४॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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