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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-८५ मुक्तेाहन्यते निश्शयमयादयोगिकेवलिचरमसमयवर्तिनो रत्नत्रयस्य मुक्तिहेतुत्वव्यवस्थितेः। ननु स्थितस्याप्यमोहस्य मोहविशेषात्मकविवक्षानुपपत्तेः कुतः श्रेयोमार्गवचनप्रवृत्तिरिति च न मंतव्यं / तीर्थकरत्वनामकर्मणा पुण्यातिशयेन तस्यागमलक्षणतीर्थकरत्वश्रियः संपादनात्तीर्थकरत्वनामकर्म तु दर्शनविशुद्ध्यादिभावनाबलभावि विभावयिष्यते। न च मोहवति विवक्षानांतरीयकत्वं वचनप्रवृत्तेरुपलभ्य प्रक्षीणमोहेऽपि तस्य तत्पूर्वकत्वसाधनं श्रेयः शरीरत्वादे: पूर्वसर्वज्ञत्वादिसाधनानुषंगात् वचोविवक्षानांतरीयकत्वासिद्धेश्शेति निरवयं सम्यग्दर्शनादित्रयहेतुकमुक्तिवादिनां श्रेयोमार्गोपदेशित्वम्। ज्ञानमात्रात्तु यो नाम मुक्तिमभ्येति कश्शन। तस्य तन्न ततः पूर्वमज्ञत्वात्पामरादिवत् // 52 // नापि पशादवस्थानाभावाद्वाग्वृत्त्ययोगतः। आकाशस्येव मुक्तस्य क्वोपदेशप्रवर्तनम् // 53 // इस प्रकार मानने पर सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र के मोक्षमार्ग की कारणता का व्याघात भी नहीं होता है- क्योंकि निश्चय नय से अयोग केवली (14 वें गुणस्थान) के चरम समय पर्यन्त रत्नत्रय के मुक्ति की हेतुता व्यवस्थित है। अर्थात् यद्यपि रत्नत्रय की पूर्णता तेरहवें गुणस्थान में हो जाती है- तथापि व्युपरतक्रिया नामक शुक्ल ध्यान रूप चारित्र की पूर्णता चौदहवें गुणस्थान में होती है। अतः रत्नत्रय की पूर्णता ही मुक्ति का कारण है। विगतमोह केवली के वचनप्रवृत्ति क्यों? शंका - जिनका मोहनीय कर्म नष्ट हो गया है, संसार में स्थित ऐसे अमोही केवली भगवान के मोहविशेषात्मक बोलने की इच्छा न होने से श्रेयोमार्ग के वचन की प्रवृत्ति कैसे हो सकती है? उत्तर- ऐसा कहना उचित नहीं है (ऐसा नहीं मानना चाहिए) क्योंकि तीर्थंकरत्व नामकर्म रूप पुण्य के अतिशय से प्राप्त आगम (द्वादशांग) रूप तीर्थ बनाने की लक्ष्मी को प्राप्त किया है। उन भगवान के दर्शनविशुद्धि आदि भावनाओं से उपार्जित तीर्थंकर नामकर्म है, उसके उदय से निर्मोही भगवान मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं। (दर्शनविशुद्धि आदि षोड़श भावनाओं के लक्षण और नाम छठे अध्याय में कहेंगे।) मोहयुक्त संसारी जीवों में बोलने की इच्छा के बिना नहीं होने वाली (बोलने की इच्छा पूर्वक ही होने वाली) वचन प्रवृत्ति को देखकर क्षीणमोही केवली में भी वचनों की प्रवृत्ति को इच्छापूर्वक सिद्ध करना श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर शरीरधारित्व, वक्तृत्व आदि हेतुओं से पूर्व के समान केवली भगवान के असर्वज्ञता की भी सिद्धि का प्रसंग आयेगा। अर्थात् केवली भगवान् हमारे जैसे शरीरधारी होने से सर्वज्ञ भी नहीं हो सकेंगे। अर्हन्त भगवान् असर्वज्ञ हैं शरीरधारी होने से, वक्ता होने से, जैसे हम लोग हैं। परन्तु शरीरधारी होते हुए भी भगवान हमारे जैसे नहीं हैं अतः उनकी वचनप्रवृत्ति इच्छारहित होती है, यह सिद्ध है। इसलिए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनों कारणों से मुक्ति को मानने वाले (कहने वाले) स्याद्वादियों के मत में सर्वज्ञ भगवान का मोक्षमार्ग का उपदेष्टापना निर्दोष है। जो कोई (कपिलमतानुयायी) ज्ञान मात्र से मुक्ति मानते हैं उनके मत में भगवान के मोक्षमार्ग का उपदेश देना घटित नहीं हो सकता है। क्योंकि पूर्ण ज्ञान के उत्पन्न होने
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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