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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-८४ तस्य निःशेषतत्त्वार्थवेदिनः समुद्भूतरत्नत्रयस्यापि शरीरित्वेनावस्थानं स्वायुर्विशेषवशवर्तित्वात् / न हि तदायुरपवर्तनीयं येनोपक्रमवशात् क्षीयेत, तदक्षये च तदविनाभाविनामादिकर्मत्रयोदयोऽपि तस्यावतिष्ठते / ततः स्थितस्य भगवतः श्रेयोमार्गोपदेशित्वं कथमपि न विरुध्यते। कुतस्तर्हि तस्यायुःक्षयः शेषाघातिकर्मक्षयश स्याद्यतो मुक्तिरिति चेत् फलोपभोगादायुषो निर्जरोपवर्णनादघातिकर्मत्रयस्य च शेषस्याधिकस्थितेदंडकपाटादिकरणविशेषादपकर्षणादिकर्मविशेषाद्वेति ब्रूमः। न चैवं रत्नत्रयहेतुता समुद्भूत है रत्नत्रय जिनके ऐसे सर्वज्ञ भगवान का अपनी आयु के वश (आधीन) होने से शरीर सहित संसार में रहना घटित होता है। क्योंकि तीर्थंकर की आयु किन्हीं भी कारणों से अपवर्तनीय (क्षय करने योग्य) नहीं है। जिससे कि उपक्रम के आधीन आयु कर्म की उदीरणा करके उसका क्षय किया जा सके। और आयु का क्षय नहीं होने पर आयु के साथ अविनाभावी सम्बन्ध रखने वाले नाम, गोत्र और वेदनीय इन तीन कर्मों का उदय भी केवली भगवान के रहता है। अतः चार अघातिया कर्मों के कारण संसार में स्थित केवली भगवान के मोक्षमार्ग का उपदेश देना किसी भी प्रकार से विरुद्ध नहीं पड़ता है। (अर्थात् तीर्थंकर नामकर्म, सुस्वर नाम कर्म, मन, वचन, काय योग और भव्य जीवों के पुण्य विशेष का निमित्त पाकर तीर्थंकर मोक्षमार्ग का उपदेश देते हैं। इसमें कोई विरोध नहीं है।) अघातिया कर्मों के नाश के कारण - यदि रत्नत्रय की पूर्णता होने पर भी भगवान् के चार अघातिया कर्म स्थित हैं, तो उस आयु कर्म और शेष तीन अघातिया कर्मों का नाश किन कारणों से होता हैं, जिससे वे संसार से छूट जाते हैं, ऐसी शंका होने पर आचार्य कहते हैं आयु कर्म की निर्जरा तो उसके फल के उपभोग से हो जाती है और शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति की दण्ड, कपाट, प्रतर और लोकपूरण आदि करण विशेष से और अपकर्षण आदि क्रियाविशेष से निर्जरा कर दी जाती है। ऐसा हम लोग कहते हैं। भावार्थ - मूल शरीर को न छोड़कर आत्मप्रदेशों का बाहर निकलना समुद्घात कहलाता है। केवली का समुद्घात केवली समुद्धात कहलाता है। प्रयत्न और इच्छा के बिना ही आयु के समान शेष तीन अघातिया कर्मों की स्थिति करने के लिए 13 वें गुणस्थान का अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहने पर केवली समुद्घात होता है- उसमें आठ समय लगते हैं। प्रथम समय में दण्ड, दूसरे में कपाट, तीसरे में प्रतर और चतुर्थ समय में लोकपूरण अवस्था होती है- यह प्रसरण विधि है, पुनः संकोच होता है, पाँचवें समय में प्रतर, छठे समय में कपाट, सातवें समय में दण्ड रूप और आठवें समय में आत्मप्रदेश पुनः स्वशरीर प्रमाण हो जाते हैं। इस समुद्धात क्रिया से नामादि तीन अघातिया कर्मों की स्थिति आयु कर्म के बराबर हो जाती है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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