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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-७६ परस्याप्ययं न्यायः समान इति चेत् नैवं सर्वस्य सर्वज्ञज्ञापकानुपदर्शनम्।। सिद्धं तदर्शनारोपो येन तत्र निषिध्यते // 31 // सर्वसंबंधिनि सर्वज्ञज्ञापकानुपलंभे हि प्रतिपत्तुः स्वयं सिद्धे कुतशित्कस्यचित्सर्वज्ञज्ञापकोपलंभसमारोपो यदि व्यवच्छेद्येत तदा समानो न्यायः स्यान्न चैवं सर्वज्ञाभाववादिनां तदसिद्धेः। आसन् संति भविष्यंति बोद्धारो विश्वद्रश्चनः / मदन्येऽपीति निर्णीतिर्यथा सर्वज्ञवादिनः // 32 // किंचिज्ज्ञस्यापि तद्वन्मे तेनैवेति विनिश्चयः। इत्ययुक्तमशेषज्ञसाधनोपायसंभवात् // 33 // जिस प्रकार एकान्त की अनुपलब्धि जैनाचार्यों के द्वारा साध्य है, वैसे हम सर्वज्ञ की अनुपलब्धि (अभाव) को भी सिद्ध कर सकते हैं- क्योंकि दोनों के अभाव में समानता है। मीमांसक के द्वारा ऐसा कहने पर जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसक का यह कथन ठीक नहीं है- क्योंकि जैसे सर्वत्र अनेकान्त की उपलब्धि रूप एकान्तों का अदर्शन (नहीं दिखना) सिद्ध है वैसे ही सर्वत्र सर्वज्ञ की अनुपदर्शन (अनुपलब्धि) सिद्ध होती है, तो उसके दर्शन का आरोप करके सर्वज्ञ का निषेध किया जा सकता है। परन्तु सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों का अभाव सिद्ध नहीं है। इसलिए सर्वज्ञ के अभाव की सिद्धि और एकान्त के अभाव की सिद्धि समान नहीं हैं॥३१॥ यदि ज्ञाता मीमांसक को सर्वसम्बन्धि-सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों का अनुपलम्भ अपने आप सिद्ध होता और बाद में कहीं पर किसी सर्वज्ञवादी व्यक्ति को किसी कारण से उसके विपरीत सर्वज्ञ के ज्ञापक का उपलम्भरूप आरोप होता, और उस आरोप का व्यवच्छेद किया जाता, तब तो हमारे एकान्ताभाव का और आप द्वारा कथित सर्वज्ञाभाव का न्याय समान होता / परन्तु इस प्रकार सर्वज्ञ-अभाववादियों के मत में सम्पूर्ण आत्माओं में सर्वज्ञ के उन ज्ञापक प्रमाणों का अभाव सिद्ध नहीं है। इसलिए स्याद्वादियों का और मीमांसकों का न्याय सदृश नहीं भूतकाल में भी विश्वदृशी (सर्वज्ञ) को जानने वाले मेरे अलावा दूसरे पुरुष थे। वर्तमान काल में भी किसी क्षेत्र में सर्वज्ञ को प्रत्यक्ष जानने वाले हैं और इस क्षेत्र में आगम, अनुमान से सर्वज्ञ को जानने वाले पुरुष विद्यमान हैं। और भविष्यत् काल में भी सर्वज्ञ को जानने वाले होंगे। इस प्रकार से जैसे सर्वज्ञवादियों के सर्वज्ञ का निर्णय है, उसी प्रकार पूर्वकाल में सभी मानव अल्पज्ञ थे, वर्तमान में अल्पज्ञ हैं और भविष्यत् काल में अल्पज्ञ होंगे। अर्थात् सर्वज्ञ और सर्वज्ञ को जानने वाले कोई नहीं होंगे। यह भी निर्णीत है, निश्चित है। जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसक का यह कथन युक्तिसंगत नहीं है। क्योंकि सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले समीचीन उपाय सम्भव हैं अर्थात् सर्वज्ञ को सिद्ध करने वाले प्रमाणों का सद्भाव है॥३२-३३॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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