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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 75 मिथ्यादृशस्तदधिकरणस्य वचनाद्यनुमानात्सिद्धिसद्भावात्तदभिप्रायस्य च तदनुपलंभनानिषेधे साध्ये कुतो न दोष इति न वाच्यम्। अनेकांते हि विज्ञानमेकांतानुपलंभनम्। तद्विधिस्तनिषेधश यतो नैवान्यथा मतिः॥३०॥ ___अनेकांतोपलब्धिरेव हि प्रतिपत्तुरेकांतानुपलब्धिः प्रसिद्धैव स्वसंबंधिनी सा चैकांताभावमंतरेणानुपपद्यमाना तत्साधनीया। न चानेकांतोपलंभादेवानेकांतविधिरभिमतः स एव चैकांतप्रतिषेध इति नानुमानतः साधनीयस्तस्य तत्र वैयर्थ्यात् / सत्यमेतत् / कस्यचित्तु कुतचित्साक्षात्कृतेऽप्यनेकांते विपरीतारोपदर्शनात्तव्यवच्छेदोऽनुपलब्धेः साध्यते। ततोऽस्याः साफल्यमेव। प्रमाणसंप्लवोपगमाद्वा न दोषः / एकान्त के दुराग्रह का अधिकरण (आधार) मिथ्यादृष्टि के वचन से वा अनुमान से, एकान्त का सद्भाव होने से, मिथ्यादृष्टि के अभिप्राय(एकान्त दुराग्रह) का अनुपलम्भन होने से साध्य के निषेध में दोष कैसे नहीं है? एकान्त के अनुपलम्भन से एकान्त के अभाव को सिद्ध करने पर जैनदर्शन में दोष क्यों नहीं आता है ? जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसक को ऐसा नहीं कहना चाहिए क्योंकि- जैनदर्शन में तुच्छाभाव के समान एकान्त का अभाव नहीं मानते हैं। अपितु अनेकान्त धर्म की उपलब्धि ही (अनेकान्त का विज्ञान ही) एकान्त का अनुपलंभ है। इसलिए अनेकान्त का विधान ही एकान्त का निषेध है। अन्यथा (मीमांसक और नैयायिकों के समान सर्वथा) अभाव का ज्ञान होना हम नहीं मानते हैं॥३०॥ प्रतिपत्ता (ज्ञाता) को वस्तु में तादात्म्य सम्बन्ध से रहने वाले अनेक धर्मों-अनेकान्त की उपलब्धि ही एकान्त की अनुपलब्धि के लिए प्रसिद्ध है। क्योंकि एकान्त के अभाव के बिना नहीं होने वाली अनेकान्त की उपलब्धि को सिद्ध करना चाहिए। अर्थात् अनेकान्त की उपलब्धि ही एकान्त का निषेध है, ऐसा समझना चाहिए। व्यर्थ में निषेध्य के आधार का ज्ञान या निषेध्य के स्मरण की आवश्यकता नहीं है। ___अनेकान्त के उपलंभ (उपलब्धि) से ही अनेकान्त की विधि मानी गई, वही एकान्त का प्रतिषेध है। इस प्रकार अनुमान से सिद्ध नहीं करना चाहिए। क्योंकि अनेकान्त की उपलब्धि और एकान्त का प्रतिषेध ये दोनों एक ही हैं तब एकान्त के निषेध का अनुमान करना व्यर्थ है। यह तुम्हारा कथन सत्य है। किन्तु किसी मनुष्य के कुतश्चित् (किन्हीं) अनेक अर्थक्रियाओं के द्वारा अनेक धर्मात्मक वस्तु का साक्षात् निर्णय हो जाने पर भी अनेक धर्म के विपरीत आरोप (एकान्त की कल्पना) देखा जाता है। अत: उस विपरीत एकान्त की कल्पना का व्यवच्छेद करने के लिए अनुमान के द्वारा एकान्त की अनुपलब्धि सिद्ध की जाती है। अतः एकान्त की अनुपलब्धि को सिद्ध करने वाले अनुमान ज्ञान की सफलता ही है। एक वस्तु को सिद्ध करने के लिए प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि अनेक प्रमाणों का संप्लव (एकत्रता) भी जैनधर्म में स्वीकृत है, इसलिए अनुमान के द्वारा एकान्त की अनुपलब्धि सिद्ध करना दोषयुक्त नहीं है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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