SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 107
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक-७४ . नहि प्रमाणात्सिद्धे सर्वज्ञज्ञापकोपलंभे परोपगमोऽसिद्धो नाम यतस्तन्नास्तितासाधनेऽन्योन्यं व्याघातो न स्यात् / प्रमाणमंतरेण तु स न सिद्ध्यत्येवेति तत्सामग्र्यभाव एव। नन्वेवं सर्वथैकांत: परोपगमतः कथम् / सिद्धो निषिध्यते जैनैरिति चोद्यं न धीमताम् // 28 // न हि स्वोपगमतः स्याद्वादिनां सर्वथैकांत: सिद्धोऽस्तीति निषेध्यो न स्यात् सर्वज्ञज्ञापकोपलंभवत्, तदेतदचोद्यम्। प्रतीतेऽनंतधर्मात्मन्यर्थे स्वयमबाधिते। __ को दोषः सुनयैस्तत्रैकांतोपप्लवबाधने॥२९॥ सुनिशितासंभवद्वाधकप्रमाणेऽपि ह्यनेकांतात्मनि वस्तुनि दृष्टिमोहोदयात्सर्वथैकांताभिप्रायः कस्यचिदुपजायते / स चोपप्लवः सम्यग्नयैर्बाध्यते इति न कश्चिद्दोषः। प्रतिषेध्याधिकरणं प्रतिपत्तिलक्षणः प्रतिषेध्यासिद्धिलक्षणो वा ? इस प्रकार सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाणों की प्रमाण से सिद्धि हो जाने पर सर्वज्ञवादियों के द्वारा स्वीकृत सर्वज्ञ, मीमांसकों के दर्शन में कैसे भी असिद्ध नहीं है। जिससे कि उस सर्वज्ञ का नास्तिपना सिद्ध करने में मीमांसकों के मत में परस्पर विरुद्ध वचनों में व्याघात दोष न हो सके। प्रमाण के बिना सर्वज्ञ के ज्ञापकों का उपलभ सिद्ध नहीं होता है। अतः मीमांसकों के यहाँ अभाव प्रमाण के उत्पन्न होने की सामग्री का अभाव ही है। अर्थात् सर्वज्ञ का अभाव किसी प्रमाण से सिद्ध नहीं होता है। अनेकान्त प्रमाणसिद्ध है पर के द्वारा (सांख्य मत में सर्वथा नित्य और बौद्ध मत में सर्वथा क्षणिक) स्वीकृत सर्वथा एकान्त जैन दर्शन में कैसे सिद्ध हो सकता है? क्योंकि जैन सिद्धान्त में एकान्त का निषेध है। बुद्धिमानों को इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए // 28 // मीमांसक का कथन - स्वयं स्याद्वादियों द्वारा स्वीकृत सर्वथा एकान्त सिद्ध नहीं है तो फिर उसका निषेध कैसे हो सकता है अर्थात् जो स्वयं सिद्ध नहीं है, वह निषेध करने योग्य नहीं है। जैसे सर्वज्ञ ज्ञापकोपलंभ का अस्तित्व सिद्ध नहीं होने से नास्तित्व सिद्ध नहीं है। जैनाचार्य कहते हैं कि मीमांसकों को इस प्रकार की शंका नहीं करनी चाहिए। अर्थात अश्व विषाण के समान एकान्तों का निषेध करना हमको आवश्यक नहीं है। अतः जैनमत में यह कुशंका रूपी दोष नहीं है। सुनयों से स्वयं अबाधित अनेक धर्मात्मक पदार्थ की प्रतीति हो जाने पर उस सिद्ध वस्तु में सर्वथा एकान्तों के तुच्छ उपद्रवों कों बाधा देने में क्या दोष संभव है? अर्थात् कोई भी दोष नहीं है॥२९॥ अनेक धर्मात्मक वस्तु के निश्चय में सुनिश्चित असंभव बाधक प्रमाण के अर्थात् अनेकान्त धर्मात्मक वस्तु के समीचीन प्रमाण के द्वारा सिद्ध हो जाने पर भी दर्शनमोहनीय कर्म के उदय से सर्वथा एकान्त अभिप्राय किसी के उत्पन्न होता है। अर्थात् मिथ्यादृष्टि के जीवादि पदार्थ नित्य ही हैं वा अनित्य ही हैं- इस प्रकार का कदाग्रह उत्पन्न होता है। वह उपप्लव (कदाग्रह) समीचीन नयों के द्वारा बाधित होता है इसलिए अनेकान्त में कोई दूषण नहीं आता है। यदि सर्वथा एकान्तों के अभावरूप अनेकान्त माना जाता तब तो एकान्तों के अभाव जानने में निषेध करने योग्य, एकान्तों के अधिकरणों का न जानना स्वरूप अथवा प्रतियोगी के स्मरण करने योग्य सर्वथा एकान्तों की असिद्धि स्वरूप दोष संभव है। अर्थात् एकान्त स्वरूप की सिद्धि न होने से असिद्ध है। परन्तु अनेकान्त में असिद्ध दोष नहीं है- क्योंकि अनेकान्त प्रमाणसिद्ध है।
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy