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________________ तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक - 77 स्वयमसर्वज्ञस्यापि सर्वविदो बोद्धारो वृत्ता वर्तन्ते वर्तिष्यंते मत्तोऽन्येपीति युक्तं वक्तुं, तत्सिद्ध्युपायघटनात् / तत्पुनरसर्वज्ञवादिनस्ते पूर्व नासन्न संति, न भविष्यंतीति प्रमाणाभावात् / कथम् यथाहमनुमानादेः सर्वज्ञं वेद्मि तत्त्वतः। तथान्येऽपि नराः संतस्तद्वोद्धारो निरंकुशाः॥३४॥ संतः प्रशस्याः प्रेक्षावंतः पुरुषास्ते मदन्येऽप्यनुमानादिना सर्वज्ञस्य बोद्धारः प्रेक्षावत्वात् यथाहमिति ढवतो न किंचिद्वाधकमस्ति / न च प्रेक्षावत्त्वं ममासिद्धं निरवद्यं सर्वविद्यावेदकप्रमाणवादित्वात् / यो हि यत्र निरवद्यं प्रमाणं वक्ति स तत्र प्रेक्षावानिति सुप्रसिद्धम् / यथा मम न तज्ज्ञप्तेरुपलंभोऽस्ति जातुचित् / तथा सर्वनृणामित्यज्ञानस्यैव विचेष्टितम् // 35 // हेतोर्नरत्वकायादिमत्त्वादेर्व्यभिचारतः। स्याद्वादिनैव विश्वज्ञमनुमानेन जानता // 36 // इस समय स्वयं अल्पज्ञ होकर भी स्याद्वादी इस बात को युक्तिसहित कह सकते हैं कि हम से अतिरिक्त पुरुष भी भूतकाल में सर्वज्ञ को जानने वाले थे, वर्तमान में हैं और भविष्य में होंगे। क्योंकि उस सर्वज्ञ की सिद्धि का उपाय अनुमान प्रमाण से घटित है (सुसिद्ध है) किन्तु असर्वज्ञवादी (मीमांसक) के भूतकाल में सर्वज्ञ . नहीं थे, वर्तमान में नहीं है और भविष्य काल में नहीं होंगे, इस की सिद्धि में प्रमाण का अभाव है। सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण - सर्वज्ञ के ज्ञापक प्रमाण कैसे हैं? सर्वज्ञ की सिद्धि कैसे होती है? उसी को कहते हैं जिस प्रकार मैं अनुमान और आगम आदि प्रमाणों से वास्तविक रूप से सर्वज्ञ को जानता हूँ, उसी प्रकार दूसरे विचारशील सज्जन पुरुष भी निरंकुश (अबाधित) प्रमाणों से सर्वज्ञ को जानते हैं // 34 // मुझ से अतिरिक्त सन्त (सज्जन), प्रशस्य (प्रशंसनीय), प्रेक्षावान् (बुद्धिमान) पुरुष अनुमानादि प्रमाणों से सर्वज्ञ को जानने वाले हैं, विचारशील होने से जैसे मैं। अर्थात् जैसे विचारशील बुद्धिमान होने से मैं सर्वज्ञ को जानने वाला हूँ, वैसे विचारशील अन्य पुरुष भी सर्वज्ञ को जानने वाले हैं। इस प्रकार मुझ सर्वज्ञवादी के कथन में किंचिदपि बाधक प्रमाण नहीं है। मेरे में विचारशीलत्व या बुद्धिमतत्व असिद्ध भी नहीं है। क्योंकि मैं निर्दोष सम्पूर्ण विद्याओं के वेदक (ज्ञान कराने वाले) प्रमाण को स्वीकार करने वाला हूँ। (समीचीन ज्ञान का कथन करने वाला हूँ) क्योंकि जो जिस विषय में निर्दोष प्रमाण को कहता है, वह उस विषय में प्रेक्षावान वा विचारशील है। यह कथन लोकप्रसिद्ध है। ___ जैसे मुझको सर्वज्ञ की ज्ञप्ति (ज्ञान) की उपलब्धि कभी नहीं होती है, उसी प्रकार सभी मनुष्यों को भी सर्वज्ञ का ज्ञान नहीं हो सकता है; ऐसा मीमांसक का कहना मूर्ख की चेष्टा के समान है। अज्ञानी की चेष्टा है क्योंकि नरत्व, कायत्व आदि हेतुओं का अनुमान से सर्वज्ञ को जानने वाले स्याद्वादी से ही व्यभिचार है॥३५-३६॥
SR No.004284
Book TitleTattvarthashloakvartikalankar Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuparshvamati Mataji
PublisherSuparshvamati Mataji
Publication Year2007
Total Pages450
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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