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________________ 'यह निर्ग्रन्थ अवस्था काम, क्रोध और मोह रूप सूक्ष्म विकारों पर ज्ञान दारा , विजय प्राप्त करके ही संभव होती है। समस्त दुःखों के हेतु काम से ही और काम के सूक्ष्म रूप राग और मोह से ही उत्पन्न होते हैं। योगीजन इसीलिए दो ग्रन्थियों का उल्लंघन बड़ा दुर्लभ मानते हैं - कंचन और कामिनी / कंचन वस्तु या पदार्थनिष्ठ मूर्च्छना है तथा कामिनी पर-जीवनिष्ठ मूर्च्छना। जिनेश्वर हो चाहे बुद्ध हो, चाहे शिव हो, इन सबको काम विजेता माना गया है। कामजय योगी की सुदृढ़ योगभूमि है। राग व मोह का जय ही अहं का अहंकार का, अभिमान का देष राग का ही दूसरा बाजू है। दम्भी मानव में भीराग भाव की ही क्रीड़ा रहती है, उसमें राग की प्रधानता है और साथ ही वह कायर भी होता है। अत: वह माया से, छल से, कपट से, काम लेता है। ऐसा करके वह अपने लक्ष्य पर नहीं पहुँच . सकता, न स्थिर ही रह सकता है।'' ध्यान की पात्रता व अपात्रता - ध्यान, योग का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। उसके लिए कौन पात्र है और कौन अपात्र है यह विषय बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है। जिन-जिन आचार्यों ने ध्यान का विवेचन किया है, उन्होंने इस सम्बन्ध में भी विचार किया है। आचार्य शुभचन्द्र ने ज्ञानार्णव में अनेक स्थानों पर इस सम्बन्ध में चर्चा की है। ध्यान प्रकरण में तो इसकी विवेचना हुई ही है अन्यान्य स्थानों पर भी इसे चर्चित किया गया है। ध्यान के अनुरूप भूमिका प्राप्त करने हेतु एक साधक को किन-किन स्थितियों से बचते रहना चाहिए इस पर ग्रन्थकार ने विशद विश्लेषण किया है। , ___ 'जिस योगी के जो कर्म में है वह वचन में नहीं और जो वचन में है वह चित्त में नहीं। अर्थात् जो करता कुछ है, बोलता कुछ और सोचता कुछ है वह पुरुष ध्यान की स्थिति को कैसे प्राप्त कर सकता है।2 इसी विषय में वे आगे लिखते हैं - 'कीर्ति, यश तथा अभिमान से जो पीड़ित हैं, लोगों में हमारी अत्यधिक मान्यता बढ़े, ऐसी आकांक्षा में जो अनुरक्त हैं, जिसके ज्ञान रूपी नेत्र विलुप्त हो गए हैं, जो अज्ञानान्ध हैं, उसमें ध्यान की योग्यता नहीं होती। जिसकी बुद्धि में तत्त्वों के विषय में संदेह बना रहता है, जिसे काम और अर्थ की लालसा है, जो औरों के सिद्धान्तों से विप्रलब्ध या दिग्भ्रान्त है वह कैसे ध्यान कर सकता है।'' ग्रन्थकार ने पाँच विकारोत्पादक भावनाओं का उल्लेख किया है, जिससे एक ध्यान योगी को बचे रहना चाहिए। उन्होंने बड़े प्रेरक शब्दों में इसे अवगत कराया है - 2. ज्ञानार्णव, 4/32. 1. योगानुशीलन, पृ. 26. 3. ज्ञानार्णव, 4/35, 38.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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