________________ 'साधकों को आध्यात्मिक जीवन का एक रहस्य जान लेना चाहिए - हममें से प्रत्येक में राग और द्वेष दोनों हैं। यह सम्भव नहीं कि इनसे हम एकदम छुटकारा पा लें। इसलिए हमें अपने प्रेम को प्रयत्नपूर्वक परमेश्वर की ओर मोड़ना चाहिए, किसी व्यक्ति या वस्त की ओर नहीं। इसी प्रकार हम अपने ढेषको उन सभी वस्तओं की ओर मोडें जो हमारे अपने स्वरूप के बोध में तथा हमारी आध्यात्मिक प्रगति में बाधक होती हैं।' श्रीपद्मसिंह मुनि ने अपने 'ज्ञानसार' में योगी का स्वरूप इस प्रकार लिखा है - ''कन्दर्प (काम व कामवासना) और दर्प (अभिमान, अहंकार) का जिसने दलन किया है, दम्भ से जो रहित है, जो काया के व्यापार से रहित है, जिसका शरीर उग्र तपसे दीप्त हो रहा है, उसी को परमार्थ से योगी जानना चाहिए।" 'योग से काया में, मन में, प्राण में, सबमें दीप्ति होती है, मगर इस योग में तीन बड़े विघ्न हैं, - 1. कामोद्वेग, 2. अहंकार और 3. माया यानी कपट व दम्भ / ध्यान की एकाग्र क्रिया जब होने लगती है तो उससे मानव के सब स्तरों के आवरण टूटने लगते हैं। उनकी जड़ हुई शक्ति खुलने लगती है। शक्ति का यह जागरण ध्यान का फल है। इसी शक्ति जागरण को ध्यानी यदि सही समझ पाता है और जाग्रत कामशक्ति को निग्रह करके अपव्यय नहीं करता है, तब ही वह आगे उन्नति करता है। योगी से भूल कहाँ होती है ? सबसे नीचे का स्तर मानव में काम स्तर है, यह बहत स्थूल भी है और बहुत सूक्ष्म भी है। स्थूल दशा में यह अब्रह्म यानी कामसेवन अर्थात् विषय-लम्पटता के भावों को भी उग्र करता है, विपरीत लिंग का आकर्षण तीव्र हो जाता है, स्त्री का पुरुष को और पुरुष का स्त्री को यौन आकर्षण का भाव होता है। इस स्थूलता से ध्यानी साधक जब बिना बलात् (दमन) सहज रूप में, ज्ञान भाव से उबर जाता है तो वह कामशक्ति ही उसके लिए ऐसी * प्राणिक शक्ति बन जाती है, जो उसे अन्य उच्च स्तरों के खोलने व प्रकाशित करने में सहायक होती है। सूक्ष्म अवस्था में यह काम ही कामना, आशा, तृष्णा आदि का स्वरूप है तथा इन सबके मूल में होता है मानव की अज्ञानदशा। यह अज्ञान ही अनादि का अन्धकार है जो जीवात्मा में अन्त:प्रकाश को आवृत रखता है। यह अज्ञान प्रकट रहता है राग और मोह से / राग और मोह जीवन को सदा से विभ्रम में रखते आए हैं। ये ही जीव की भूल व मूर्छा के कारण हैं। ये जीव में सूक्ष्म रूप में रहते हैं और आगे उच्च ध्यान अवस्थाओं में पहुँचने पर ही ये राग व मोह कटते हैं। इनके नष्ट होने पर ही साधक सिद्ध योगी हो जाता है। बलात् दमन परवर्सिटीज को, ग्रन्थियों को पैदा करता है अत: लक्ष्य ग्रन्थि विमोचन है, न कि ग्रन्थियाँ बनाना। तब ही निर्ग्रन्थ होते हैं। 1.ज्ञानसार, 4. ' 2. योगानुशीलन, पृ. 25-6. '67