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________________ साधु को चाहिए कि वह आध्यात्मिक विकास के लिए पर-पदार्थों से ममत्व बुद्धि हटाकर अपने निजत्व के प्रति दृष्टि रखे। 'जो पदार्थ और व्यक्ति हमें किसी भी प्रकार प्रलोभित करते हैं, उनके प्रति एक नया दृष्टिकोण बनाना होगा। यह तब तक आवश्यक है, जब तक उनसे हम निर्लिप्त नहीं हो जाते। हमें अपने मन की गतिविधियों पर कड़ी निगरानी रखनी होगी, जिससे हम अधिक-से-अधिक जागरूक और प्रत्येक बात में निश्चिंत हो सकें। जब तक हम जागते हैं, उस बीच मन में किसी भी प्रकार का अचेतन स्फुरण न हो ऐसा कोई विचार न हो, जो हमारे अनजान में उठ जाए। यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण बात है क्योंकि साधना की प्रारम्भिक अवस्था में, जो कि अनेकानेक वर्षों तक बनी रह सकती है। साधना प्रारम्भ करने से पूर्व की अवस्था की तुलना में देह-बोध अधिक प्रबल और मन अधिक चंचल हो जाता है। साथ ही यदि हम अपने राग और देष के विषयों से भौतिक एवं मानसिक रूप से सतर्कतापूर्वक बचने की कोशिश न करें, तो ये रागद्वेष बड़े प्रबल और घातक हो जाते हैं। 'सच्चे त्याग और वैराग्य के बिना साधना सफलतापूर्वक नहीं की जा सकती। जिस अनुपात में हम अपनी कामनाओं का त्याग कर सकते हैं, और दूसरों के प्रति रागद्वेष को मिटा सकते हैं, उसी अनुपात पर साधना की सफलता और प्रगति निर्भर करती है। इस सम्बन्ध में हम कभी अपने आपको मन के द्वारा छलने न दें। हम अमुक व्यक्ति अथवा विषय को क्यों त्याग नहीं सकते इसके लिए मन सदा ही कोई-न-कोई युक्ति संगत कारण प्रस्तुत करने को तैयार रहता है, वह अवचेतन अथवा अर्धचेतन वासनाओं का प्रवक्ता बनने के लिए सदैव तत्पर रहता है। अत: हमें न केवल जप-ध्यान, प्रार्थना तथा अन्य साधनाओं की आवश्यकता है, अपितु त्याग और वैराग्य की भी। और जिस परिमाण में हम सच्चा त्याग और वैराग्य प्राप्त करने में सफल होंगे, उसी परिमाण में हमारे प्रयत्नों का सच्चा और उल्लेखनीय प्रभाव पड़ेगा। 2 जिन वस्तुओं या व्यक्तियों से हम उत्कटता से प्रेम करते हैं, वे हमारे मन को प्रभावित करते हैं और उसमें राग-द्वेष और घृणा उत्पन्न कर देते हैं। राग और देष एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे एक ही श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं। अतएव हमें वैराग्यवान् बनकर तथा व्यक्तिगत रुचियों और अरुचियों को त्यागकर सब प्रकार की आसक्ति और भय से छुटकारा पा लेना चाहिए। हम दयालु हों, पर अधिक व्यक्तिगत सम्पर्क से बचें। न तो हमारा किसी पर कोई व्यक्तिगत या स्वार्थगत अधिकार हो, न हम किसी को . अपने ऊपर या अपने स्नेह पर व्यक्तिगत अधिकार जताने दें। जब तक हम क्षुद्र राग और देष, रुचि और अरुचि के बीज बोएंगे, जब तक हम स्वयं तथा दूसरों को तथाकथित प्रेम की बेड़ियों में जकड़े रहेंगे, तब तक हम क्रीतदास ही बने रहेंगे और अपने एवं दूसरों को कष्ट ही देते रहेंगे।' 1. धर्म जीवन तथा साधना, पृ. 31. 2. धर्म जीवन तथा साधना, पृ. 31-2 3. वही, पृ. 32.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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