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________________ में कहा है - 'इन्द्रिय विषयों से विरक्ति, परिग्रह का त्याग, कषायों का दमन, रागद्वेष की शान्ति, यम-नियम, इन्द्रियदमन, सात तत्त्वों का विचार, तपश्चरण में उद्यम, मन की प्रवृत्ति पर नियन्त्रण, जिनवर भगवान् में भक्ति और प्राणियों पर दया भाव, ये सब गुण उसी पुण्यात्मा जीव के होते हैं। जिसके कि संसार रूपी समुद्र का किनारा निकट आ चुका है।'' - तत्त्वविचारसार में ध्याता के स्वरूप का इस प्रकार निर्देश किया है - 'जो व्रतिवर आहार, आसन, निद्रा तथा पाँच इन्द्रियों, बाईस परीषहों, क्रोधादि कषायों का जीतने वाला, परिग्रह से रहित, निर्मोही अर्थात् विपरीत अभिप्राय से रहित, इन्द्रिय व्यापार से रहित, जिन सूत्र (शास्त्र) में सुदृढ़, उत्तम संहनन से युक्त, स्थिरचित्त हो ऐसा ध्याता पुरुष होता है।' श्रीमद्भगवद गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने योगी का स्वरूप निर्देश करते हुए कहा है - 'किसी व्यक्ति को आत्मज्ञान में स्थिर तब कहा जाएगा और वह योगी तब कहलाएगा जबकि वह ज्ञान और विज्ञानपने से पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो जाए। ऐसा व्यक्ति आत्मज्ञान में स्थिर होता है और आत्मसंयमी होता है। वह हर चीज को चाहे पत्थर हो या सोना हो बराबर दृष्टि से देखता है।' योग में इन्द्रियों का संयम करना अनिवार्य है और जब सब इन्द्रियाँ संयम में आ जाती हैं तो मन को भगवान् परमात्मा के स्मरण में लगाना होता है। इससे वह सांसारिक जीवन पर विजय पा कर शान्तमय हो जाता है। - आगे योगी के समत्वभाव का वर्णन करते हुए कहा है - 'जिसने मन पर विजय पा ली है वह परमात्मा तक पहुँच चुका है और शान्ति पा ली है। ऐसे व्यक्ति के लिए सुख और दुःख, गर्मी और सर्दी, मान और अपमान सब बराबर हैं।' . आचार्य कुन्दकुन्द ने भी प्रवचनसार में साधु (श्रमण) के लक्षण का निर्देश करते हुए इसी भाव को व्यक्त किया है - समसत्तुबंधुवग्गो समसुहदुक्खो पसंसणिंदसमो। समलोहकंचणो पुण जीविदमरणे समो समणो / ' अर्थात् जिसे शत्रु और मित्रों का समूह एक समान हो, प्रशंसा और निन्दा एक समान हो, पत्थर के ढेले और सुवर्ण एक समान हो तथा जो जीवन और मरण में समभाव वाला हो वह श्रमण अर्थात् साधु है। 1. आत्मानुशासन, 224. 2. तत्त्वविचारसार, गाथा 286-7. 3. श्रीमद्भगवद्गीता, 6/8. 4. श्रीमद्भगवद्गीता, 6/7. .. 5. प्रवचनसार, 3/41. .65
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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