________________ अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार मदिरा को पीकर उन्मत्त हुआ - नशे में चूर - मनुष्य घर के अग्नि से जलने पर भी उसके भीतर ही स्थित रहता है और कष्ट सहता है, किन्तु उसके बाहर नहीं निकलता है, उसी प्रकार प्रमादी जीव भी मोह से संतप्त रहकर कष्ट तो भोगते हैं, किन्तु उस प्रमाद को नहीं छोड़ते हैं। उस प्रमाद को केवल वे योगीजन ही छोड़ते हैं जिनके अन्त:करण में सुख-दुःख का विवेक उदित हो चुका है। ___धर्म व शुक्ल ध्यानों को ध्याने वाले योगी को ध्याता कहते हैं उसी की विशेषताओं . . का परिचय निम्नत: दिया गया है - 'जो उत्तम संहनन वाला निसर्ग से बलशाली और शूर तथा चौदह या दस या नौ पूर्व को धारण करने वाला होता है वह ध्याता है। आर्त्त व रौद्र ध्यान से दूर अशुभ लेश्याओं से रहित, लेश्याओं की विशुद्धता से अवलम्बित अप्रमत्त अवस्था की भावना भाने वाला बुद्धि के पार को प्राप्त योगी बुद्धिबलयुक्त सूत्रार्थ अवलम्बी धीर-वीर समस्त परीषहों को सहने वाला संसार से भयभीत वैराग्य भावना भाने वाला वैराग्य के कारण भोगोपभोग की सामग्री को अतृप्ति कर देखता हुआ सम्यग्ज्ञान की भावना से मिथ्याज्ञान रूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने वाला तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन दारा मिथ्या शल्य को दूर भगाने वाला मुनि ध्याता होता है। क्योंकि तप, व्रत और श्रुतज्ञान का धारक आत्मा ध्यानरूपी रथ की धुरा को धारण करने वाला होता है इस कारण हे भव्य पुरुषो ! तुम इस ध्यान की प्राप्ति के लिए निरन्तर तप, श्रुत और व्रत में तत्पर होओ। एक अन्यतम योगी अमितगतिसूरि के अनुसार ध्याता का स्वरूप निम्नानुसार है - 'जो स्वभाव से ही कोमल परिणामों से युक्त, कषायरहित, इन्द्रियविजेता, ममत्वरहित, अहंकाररहित, परीषहों को पराजित करने वाला, हेय ओर उपादेयतत्त्व का ज्ञाता, लोकाचार से पराङ्मुख, काम-भोगों से विरक्त, भव-भ्रमण से भयभीत, लाभअलाभ, सुख-दु:ख, शत्रु-मित्र, प्रिय-अप्रिय, मान-अपमान और जीवन-मरण में समभाव का धारक, आलस्य रहित, उद्धेगरहित, निद्राविजयी, आसनविजेता अर्थात् दृढ़ासन वाला, अहिंसादि सर्वव्रतों का अभ्यासी, सन्तोषयुक्त, परिग्रह-रहित, सम्यग्दर्शन से अलंकृत, देव-गुरु-शास्त्र की भक्ति करने वाला, श्रद्धागुण से युक्त, कर्म शत्रुओं के जीतने में शूरवीर, वैराग्ययुक्त, मूर्खतारहित अर्थात् ज्ञानवान्, निदान रहित, पर की अपेक्षा से रहित अर्थात् स्वावलम्बी, शरीररुप पिंजरे को भेदने का इच्छुक और जो अविनाशी शिवपद को जाने का अभिलाषी हो, ऐसा ध्याता भव्य पुरुष प्रशंसनीय होता है।' भव्य जीव की परिणति का दिग्दर्शन कराते हुए गुणभद्र स्वामी ने आत्मानुशासन 1. महापुराण, 21/85-9. 2. द्रव्यसंग्रह, गाथा 57. 3. अमितगतिश्रावकाचार, 15/24-9. hA