________________ आचार्य शुभचन्द्र ने लिखा है ___ 1. ध्याता, 2. ध्यान, 3. ध्येय और 4. ध्यान का फल / इन चारों का कथन भेदपूर्वक सूत्र रूप से किया जाता है।'' ध्याता अर्थात् ध्यान करने वाला अथवा जिसके द्वारा ध्यान किया जाता है, के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए ज्ञानार्णवकार आचार्य शुभचन्द्र लिखते हैं - 'जो मोक्ष का अभिलाषी संसार व शरीरादि से विरक्त, शान्तचित्त, अपने आप पर - अन्त:करण के ऊपर नियंत्रण रखने वाला, स्थिर - शरीर की चंचलता से रहित, इन्द्रियों को वश में रखने वाला और गुप्ति,व समिति आदि से आवृत्त - नवीन कर्मबन्ध को रोकने वाला है, वह ध्याता है। ध्यान का अधिकारी। ध्यान कर्त्ता में आवश्यक कौन-कौन से गुण होने चाहिए ? इसका दिग्दर्शन कराते हुए यहाँ पर कहा गया है कि प्राणी को जब तक संसार में परिभ्रमण करते हुए जन्ममरण के दुःख का अनुभव नहीं होगा तथा वह जब तक विषयानुराग व ममत्वबुद्धि को उसका कारण नहीं समझेगा तब तक वह संसार से विरक्त होकर मोक्ष का अभिलाषी नहीं हो सकता है। और जब तक उसे मोक्ष की अभिलाषा उत्पन्न नहीं होती है तब तक उसकी ध्यान में प्रवृत्ति हो नहीं सकती है। इसके साथ उसे जितेन्द्रिय - इन्द्रियों और मन को वश : में रखने वाला - भी होना चाहिए क्योंकि इन्द्रियों व मन पर विजय प्राप्त कर लेने के बिना ध्यान में कभी स्थिरता नहीं रह सकती है। क्रोधादि कषाएँ चूंकि चित्त को कलुषित करके . समीचीन ध्यान से विमुख करने वाली हैं, अतएव ध्याता को उन कषायों से रहित होकर शान्तचित्त भी होना चाहिए। इसी प्रकार शरीर के ऊपर उसका इतना नियन्त्रण भी होना चाहिए कि इच्छानुसार वह किसी भी आसन से स्थित हो दीर्घकाल तक ध्यान कर सके। इस प्रकार से ध्याता योगी जब गुप्तियों एवं समितियों आदि का परिपालन करने लगता है तब उसके नवीन कर्मों का आगमन रुककर - संवर होकर तप के प्रभाव से पूर्व संचित कर्म की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार वह अन्त में उत्कृष्ट ध्यान के आश्रय से अपने अभीष्ट मोक्ष पद को प्राप्त कर लेता है। संसार के स्वरूप का विचार करते हुए योगीजन सोचते हैं - 'प्रमाद से मोह को प्राप्त होकर मुक्तिमार्ग से भ्रष्ट हुआ यह सारा विश्व उदय में प्राप्त हुए कर्म रूप ईंधन से उत्पन्न हुई दुःखरूप अग्नि से अतिशय पीड़ित होता हुआ चारों ओर से बार-बार जल रहा है - संतप्त हो रहा है। इस प्रकार तीव्र मोह रूप अग्नि से जाज्वल्यमान इस जगत् में से केवल योगीजन ही प्रमादरूप नशा को छोड़कर बाहर निकले हैं।' 1. ज्ञानार्णव, 4/5. 2. वही, 4/6. 3. ज्ञानार्णव, 4/7-8. 63