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________________ 'कान्दी आदि रागरंजित पाँच विकारोत्तेजक भावनाओं ने जिनके हृदय में डेरा डाल दिया हो वे वस्तु तत्त्व का निश्चय कैसे कर सकते हैं। वैसे व्यक्ति अपने को साधना के योग्य नहीं बना पाते।'' ___ वे पाँच भावनाएँ इस प्रकार हैं - 1. कान्दी - कन्दर्प या काम भोग सम्बन्धी चेष्टायुक्त, 2. कैल्विषी - किल्विष क्लेश या पापोत्पादक, 3. आभियोगिकी - अभियोग, युद्ध, कलह, संघर्षसम्बन्धी, आसुरी - असुर या राक्षस की तरह सब कुछ खा-पी लेने की कुत्सित वृत्ति से युक्त और सम्मोहिनी - कौटुम्बिक या पारिवारिक मोह में ग्रस्त, ये भावनाएँ मन में विकार जगाती हैं, योगमार्ग से भ्रष्ट करती हैं। योगी को चाहिए कि वह इनका परित्याग कर दे। आचार्य शुभचन्द्र ने अध्यात्म योग की साधना के सन्दर्भ में इस बात पर बहुत जोर दिया कि गृहस्थ जीवन में यह सम्यक् सिद्धि नहीं हो पाती। उन्होंने कहा है - __ 'अनेक कष्टों से परिपूर्ण अत्यन्त निन्दनीय, गृहवास में प्रज्ञाशील पुरुष भी प्रमाद का जय नहीं कर सकते। गृही पुरुषों द्वारा चंचल मन को वश में किया जाना शक्य नहीं है। अतएव चैतसिक शान्ति के लिए सत्पुरुषों ने गृहपरित्याग ही किया है। इस विषय का और विस्तार करते हुए ग्रन्थकार ने लिखा है - 'सुन्दरियों के नयन रूपी चँवरों से संकटापन्न गृहस्थाश्रम में सैकड़ों प्रकार के ब्दन्दों से दु:खत चित्त, धन, सम्पत्ति आदि की दुराशा-दूषित लालसा रूपी ग्रह से पीड़ित मनुष्य आत्मकल्याण सिद्ध नहीं कर सकते। जो निरन्तर आर्तध्यान की अग्नि से जलता रहता है, कलुषित वासनाओं के अन्धकार से जहाँ नेत्र दृष्टि आच्छन्न रहती है, ऐसे गृहावास से व्यक्ति अनेक चिन्ताओं के .ज्वर से ग्रस्त रहते हैं, उनका आत्महित - परमश्रेयस् सिद्ध नहीं होता। जिनकी बुद्धि, गृहवास के विपत्ति रूपी घोर कर्दम में निमग्न हैं, प्रगाढ़ रागमय ज्वर के बन्धन से जो उत्पीड़ित हैं, परिग्रह रूप सर्प के विष की ज्वाला से जो संमूर्छित हैं, वे विवेकमय साधना पथ पर चलते हुए स्खलित - च्युत हो जाते हैं।' आचार्य शुभचन्द्र अपने विचारों के शिखरों पर कलशारोहण करते हुए लिखते हैं कि -- 'आकाश में कदाचित् पुष्प लग सकते हैं, गर्दभ के कदाचित् शृंग हो सकते हैं किन्तु गृहस्थाश्रम में किसी भी समय में किसी भी स्थान पर ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती।' इस सन्दर्भ पर टिप्पणी करते हुए साध्वी दर्शनलता ने लिखा है - 1. वही, 4/40. 2. ज्ञानार्णव, 4/9-10. .3. वही, 4/11-3. ____4. वही, 4/17. 69
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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