________________ "आचार्य शुभचन्द्र दारा ध्यान की अपात्रता के किये गए वर्णन में गृहवासियों को ध्यान का अपात्र बताया है। यह विषय विशेषत: विचारणीय एवं समीक्षणीय है। एक ओर जैनधर्म में श्रमण धर्म और श्रमणोपासक धर्म के रूप में सर्वस्व त्यागी साधुओं और सीमित / व्रतपालक श्रमणोपासकों की धर्म साधना एक साथ चलती दृष्टिगोचर होती है, वहाँ एक महान् विद्वान् तथा योगनिष्ठ आचार्य दारा गृहस्थ को अध्यात्म योग और ध्यान साधना के लिए अधिकारी या पात्र न माना जाना सहसा कुछ विस्मय उत्पन्न करता है। आचार्य शुभचन्द्र तो अपने युग के जैनधर्म के महान स्तम्भ थे। न केवल वे उच्चकोटि के शब्दशिल्पी ही थे, वे बहत बड़े आत्मशिल्पी भी थे। उन्होंने योग के सिद्धान्तों को जीवन में उतारा था, अनुभव किया था। यह देखा था कि कौन-से मनोज्ञ और अमनोज्ञ विघ्न साधक के जीवन में आते हैं। अमनोज्ञ कठोर, कष्टप्रद विघ्नों को टालने में उतना जोर नहीं पड़ता जितना मनोज्ञ तथा प्रिय विघ्नों को टालने में अध्यवसाय करना पड़ता है। उन प्रिय विघ्नों का सम्बन्ध माता-पिता, बन्धु-भगिनी, पत्नी-पुत्र, आदि.से है। उनमें भी पत्नी का स्थान मोहात्मकता की दृष्टि से बड़ा दुर्लंघ्य है। एक सुखी सम्पन्न घर में जहाँ अभावमूलक कष्ट नहीं होते, सब सुविधाएँ होती हैं, वहाँ ये राग-मोहात्मक विघ्न कई गुने अधिक होते हैं। वहाँ पारिवारिक सम्बन्धों की प्रगाढ़ता बहुत बढ़ जाती है। परिवार तो अनेक इकाइयों की समष्टि है, जिसमें पितामह, प्रपितामह से लेकर पौत्र, प्रपौत्र तक का समवाय आ जाता है। एक बूढ़ा प्रपितामह भी जो मौत के कगार पर पहुँचा होता है, अपने प्रपौत्र और प्रपौत्रियों के सुख-दुःख की चिंता से विमुक्त नहीं होता। मिथिलाधिपति : महाराज जनक जैसे लाखों, करोड़ों में कोई विरले ही उदाहरण होते हैं, जहाँ सुख-सम्पत्ति और वैभव-विलास के बीच रहता हुआ भी व्यक्ति जल-कमलवत् निर्लेप रह सकता हो। यही कारण है कि आचार्य शुभचन्द्र ने बहुत ही स्पष्ट शब्दों में साधना की दृष्टि से गृहस्थाश्रम की आलोचना उपर्युक्त शब्दों में की है।'' आचार्य शुभचन्द्र ने ध्यान की पराकाष्ठा को मुक्ति में साक्षात् श्रेयस्कर मानकर आध्यात्मिक ध्यान की साधना पर जोर दिया है। और ऐसा इसलिए कि आध्यात्मिक ध्यान ही कर्म बन्धन से छुटकारा देता है। आचार्य शुभचन्द्र ने इसीलिए गृहवासियों को इस ध्यान के लिए अपात्र ठहराया है। क्योंकि साधन के अनुसार ही साध्य की सिद्धि होती है और उस साध्य तक पहुँचने के लिए गृहावस्था में वह साधन और वह एकाग्रता बन ही नहीं सकती। किसी सांसारिक सिद्धि जैसे रावण की बहुरूपिणी विद्या की सिद्धि हेतु अपने . स्वजनों की दुर्दान्त दशा होते हुए भी रावण विचलित नहीं हुआ था। यह एक अलग प्रसंग हो सकता है किन्तु आत्मा से परमात्मा बनने के लिए जो ध्यान आवश्यक है वह श्रामण्य के बिना कदाचित् भी सम्भव नहीं है। क्योंकि वह भूमिका अन्य दशा में संभाव्य ही नहीं है। हाँ इसे हम सामान्य एवं विशेष ध्यान के अनुसार विभाजित अवश्य कर सकते हैं। 1. ज्ञानार्णव: एक समीक्षात्मक अध्ययन, पृ. 143.