________________ और सम्यक्चारित्र की महत्ता निर्विवाद रूप से स्वीकार की गई है। सम्यग्दर्शन से, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यग्ज्ञान से सम्यक्चारित्र की ओरसाधक क्रमश: अग्रसर होता है। इस प्रकार साधक की आत्मा की क्रमिक पवित्रता के साथ उसके भीतर ध्यान की क्षमता का विकास होता रहता है। साधारणत: यह विश्वास किया जाता है कि जैन बाह्य संयम पर अधिक बल देते हैं किन्तु यह बात सही नहीं है। बाह्य तप तो आन्तरिक तप की छायामात्र हैं। आत्मा और शरीर की एकता के भ्रम के परिहार से आत्मसाक्षात्कार संभव होता है और तभी आध्यात्मिक क्षेत्र में संचरण की योग्यता उत्पन्न होती है। उसके लिए अन्तर्मुख होकर दोनों की चिन्तना का ध्यान अनिवार्य है। जब आत्म-अनात्म का बोध हो जाए तब और ऊपर उठकर परमात्मा का साक्षात्कार अपेक्षित है। आचार्य कुन्दकुन्द, आचार्य पूज्यपाद, आचार्य योगीन्दुदेव और शुभचन्द्र जैसे योगियों ने अपनी कृतियों में आत्मसाक्षात्कार की क्रियाशैली पर विचार किया है। उन्होंने बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा रूप आत्मा की तीन अवस्थाएँ मानी हैं। इनके विषय में किञ्चित् विवेचन कर . देना प्रसंगानुरूप होगा। 1. जिस जीव के अपनी अज्ञानता के कारण आत्मस्वरूप का यथार्थ बोध न होने से शरीरादि पर-पदार्थों के विषय में आत्मबुद्धि हुआ करती है, अर्थात् जो आत्मस्वरूप से अनभिज्ञ होकर शरीर को आत्मा और उससे सम्बद्ध अन्य सब ही पर-पदार्थों (स्त्री-पुत्र एवं धन-सम्पत्ति) को अपना मानता है, उसे बहिरात्मा जानना चाहिए। उसकी चेतना विवेकबुद्धि मोहरूपी निद्रा के द्वारा नष्ट कर दी गई है।' 2.जिसे बाह्य पदार्थों को पृथक करके आत्मा के विषय में ही आत्मा का निश्चय हो चुका है, जो शरीरादि को पर और आत्मा को ही आत्मा मानता है उसे आत्मतत्त्व के ज्ञाता अन्तरात्मा मानते हैं। वह अज्ञानरूप अन्धकार को नष्ट करने के लिए सूर्य के समाज है। 3. कर्मरूप लेप से रहित, शरीर से अतिक्रान्त (अशरीर) शुद्ध, कृतकृत्य, अतिशय सुखी और विकल्प से रहित सिद्ध जीव को परमात्मा कहा जाता है।' शंका - जबकि आत्मा निर्विकल्प और अतीन्द्रिय है तब योगी उसे शरीरादि बाह्य पदार्थों के समूह से पृथक् करके उसका किस प्रकार से अभ्यास करे ? / समाधान - योगी बहिरात्म बुद्धि को छोड़कर बाह्य जड़ शरीर को आत्मा न मानकर - अभ्यन्तर स्वरूप का आश्रय लेकर अन्तरात्मा होता हुआ अतिशय पवित्र व अविनश्वर परमात्मा का ध्यान करे। 1. ज्ञानार्णव, 32/6. 2. ज्ञानार्णव, 32/7 3. वही, 32/8. 4. ज्ञानार्णव, 32/10. . 60