SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 90
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ है तब शुभ या अशुभ स्वयं ही होता है और जब शुद्ध स्वरूप परिणमित होता है तब शुद्ध होता है। आत्मा स्फटिक की भांति परिणाम स्वभावी है। शुभ व अशुभ राग भावों के निमित्त से परिणमित होकर शुभ व अशुभ होता है और विराग भाव से परिणमित होता है तो शुद्ध स्फटिक की भांति शुद्ध रहने लगता है। ध्यान का महत्त्व - जैन सिद्धान्त के अनुसार जीव वस्तुत: कर्म से बद्ध होकर अनादिकाल से इस संसार में परिभ्रमण करता रहता है। जब वह अपने स्वरूप को पहचान उसकी श्रद्धा करके उसी में लीन होता है तो संसार के बन्धन से मुक्त होता है। मुक्ति के उपाय हैं - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र / जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन सात तत्त्वों का यथार्थ श्रद्धान सम्यग्दर्शन है। जीव और अजीव के परस्पर मेल का नाम संसार है। संसार के प्रधान कारण आस्रव और बन्ध हैं। संसार के विराम रूप मोक्ष के प्रधान कारण संवर और निर्जरा हैं। संवर और निर्जरा का प्रधान कारण सम्यक्चारित्र है और उसमें तप भी गर्भित है। तप के दो भेद हैं - बाह्य और अभ्यन्तर। इन दोनों के ही छहछह भेद हैं। आभ्यन्तर तप के ही छह भेदों में से एक भेद ध्यान है। ध्यान के चार भेद हैं - आर्त्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल / इनमें से प्रथम दो संसार के कारण है और अन्तिम दो मोक्ष के कारण हैं। इससे स्पष्ट है कि ध्यान शुभ भी होता है और अशुभ भी। किन्तु जब हम ध्यान की चर्चा करते हैं तो हमारा लक्ष्य शुभध्यान ही होता है अशुभ ध्यान नहीं। ध्यान की शुभाशुभता ध्याता और ध्येय दोनों पर निर्भर होती है। यदि ध्याता विषय और कषायों से ग्रसित है और उन्हीं के विचारों में निमग्न है तो वह ध्यान अशुभ * होता है। और ऐसे ध्यान के लिए किसी प्रकार के प्रशिक्षण या योगाभ्यास की आवश्यकता नहीं होती। इनकी चिन्ता से निवृत्त होने पर ही शुभध्यान में प्रवृत्ति हो सकती है। इसी से ज्ञानार्णव में कहा है - 'काम भोगों से विरक्त होकर तथा शरीर में स्पृहा छोड़कर निर्ममत्व भाव को प्राप्त कर सका है तो तू ध्यान का अधिकारी है। उसी की तैयारी के लिए ज्ञानार्णव में बारह अनुप्रेक्षाओं का कथन है और तत्सम्बन्धी विविध उपदेश दिये गए हैं। जिनकी चर्चा ध्येय प्रकरण के अन्तर्गत की जाएगी। - जैनदर्शन में चारित्र शब्द का प्राय: वही अर्थ है, जो अन्य मतों में योग शब्द का है। जैनों ने मुक्ति प्राप्त करने के लिए जो शैली अपनाई है उसमें सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान 1. वही, 1/9. 3. वही, 9/28. 2. तत्त्वार्थसूत्र, 9/27. 4. ज्ञानार्णव, 3/23. 59
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy