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________________ ध्यान के भेद - आचार्य शुभचन्द्र ने संक्षेप रुचिवान् शिष्यों के अनुग्रह के लिए ध्यान के सामान्यतया तीन भेद निर्देशित किये हैं। यह उनके अपने विवेचन पद्धति की विशेषता है और इस विवेचना का मूलाधार अध्यात्मयुग के प्रवर्तक आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित प्रवचनसारादि में उपलब्ध भी है।' उपयोगत्रय का स्वरूप वा उनका विवेचन जिस प्रकार प्रवचनसारादि ग्रन्थों में निर्दिष्ट है, प्राय: वैसा ही प्रशस्त ध्यान आदि का स्वरूप ज्ञानार्णव में उपलब्ध होता है। . जबकि इस प्रकार का विभाजन सामान्यतया अन्य ग्रन्थों में दृष्टिगोचर नहीं होता। उपयोग के आधार पर ध्यान के निम्न तीन भेद होते हैं - 1. पुण्याशय (शुभोपयोग), 2. इसके विपरीत पापाशय (अशुभोपयोग) और 3. इन दोनों से रहित शुद्धाशय (शुद्धोपयोग)। पुण्याशय या शुभोपयोग - __ आचार्य शुभचन्द्र के शब्दों में - 'पुण्याशय के वश शुद्धलेश्या के अवलम्बन पूर्वक वस्तुस्वरूप का चिन्तन करना शुभोपयोग है।'? इसे ही आचार्य कुन्दकुन्द अपने शब्दों में निम्नत: कहते हैं कि - "जो आत्मा देव, यति, गुरु की पूजा में, दान में, अणुव्रत-महाव्रत रूप उत्तम शीलों में और उपवासादि शुभ कार्यों में लीन रहता है, वह शुभोपयोगी कहलाता है।'' .' अथवा 'जो जीव परमभट्टारक महादेवाधिदेव श्री अर्हन्त भगवान् को जानता है, . अष्टकर्म से रहित और सम्यग्दर्शनादि गुणों से विभूषित सिद्ध परमेष्ठी को ज्ञानदृष्टि से देखता है उसी प्रकार आचार्य, उपाध्याय और साधु रूप निष्परिग्रह गुरुओं को जानतादेखता है तथा जीवमात्र पर दयाभाव से सहित है उस जीव का वह उपयोग शुभोपयोग कहलाता है। . जो जीव को पुण्य-पाप से लिप्त अथवा अधीन करती है उसको लेश्या कहा जाता है। इसी लेश्या के वश प्राय: ध्यान की शुभाशुभता निर्धारित होती है। मनुष्य को जब क्रोध आता है, तब उसके मनोगत भाव का प्रभाव उसकी मुखाकृति पर उभर आता है। क्रोधादि कषायों के आवेग की तीव्रता-मन्दता के आधार पर लेश्या के भी भेद मान लिए गए हैं जो कि छह भेदों में निरूपित हैं। जिन्हें नामत: कृष्ण, नील, कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल के रूप में जाना जाता है। ये नाम के अनुरूप ही परिणामों को भी प्रदर्शित करने वाली होती हैं। इनमें कृष्ण, नील और कापोत को अशुभ और पीत, पद्म और शुक्ल को 1. प्रवचनसार, 1/9. 2. ज्ञानार्णव, 3/29. 3. प्रवचनसार, 1/69. 4. प्रवचनसार, 1/65. 5. गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 493.
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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