________________ ध्याता का निर्देश - आचार्य शुभचन्द्र की दृष्टि में ध्याता की पात्रता ध्यान या , ध्यान के पूर्वाभ्यास के लिए एक महत्त्वपूर्ण अनिवार्यता है, अन्यथा ध्यान की कल्पना भी करना उनकी दृष्टि से समीचीन नहीं। उसे ही विशेष रूप से निर्देशित करते हुए कहा गया कि - "यदि तेरे अन्त:करण में विवेक रूप लक्ष्मी निर्भय होकर स्थिरता से रह सकती है तो तेरे लिए अन्त:करण की शुद्धि को प्रदान करने वाले उस ध्यान के स्वरूप का कथन किया जाता है। हे प्राणी ! यदि तेरी तीनों लोकों को व्याप्त करने वाली मोह रूप गाढ़निद्रा नष्ट हो चुकी है तो तू शीघ्र ही उस ध्यान रूप अमृतरस का पान कर। तात्पर्य यह कि जब तक प्राणी की बाह्य पर-पदार्थों की ओर से ममत्व बुद्धि नहीं हटती है तब तक उसके निर्मल ध्यान की सम्भावना नहीं है। इसलिए ध्यान के अभिलाषी प्राणी को उस ममत्व बुद्धि का परित्याग अवश्य करना चाहिए।' "यदि तू प्रमाद रूप भयानक ग्राह के दाँतों के यन्त्र से छुटकारा पा चुका है तो तू जन्म परम्परा को नष्ट करने वाले उस ध्यान का आश्रय ले।''2 उत्तम कार्यों के विषय में या सदाचार की प्रवृत्तियों में जो अनादरभाव या मन की चंचलता होती है उसका नाम प्रमाद है। ऐसा प्रमादी व्यक्ति ध्यान करने के लिए कभी समर्थ नहीं हो सकता। आचार्य शुभचन्द्र के अनुसार जो तीव्र राग द्वेष के व्यापार में लिप्त है उसे ध्यान की गन्ध भी नहीं आ सकती, वे अपने शब्दों में निम्न प्रकार कहते हैं - "यदि अनन्त संसार में परिभ्रमण स्वरूप महावृष्टि के विस्तार में अतिशय प्रवीण अनन्त संसार में परिभ्रमण कराने वाले वे रागद्वेषादि तेरे क्षीण हो चुके हैं तो तू ध्यान के लिए प्रयत्नशील हो।' "हे धीर! यदि तेरा मन संवेग (धर्मानुराग), निर्वेद (विषयविरक्ति) और विवेक से संस्कृत हो चुका है तो तू अपनी आत्मा में आत्मा का अवलोकन कर आत्मध्यान में लीन हो।' इस तरह हम देखते हैं कि जब तक ध्याता में ध्यान करने के योग्य गुणों का, जिनमें रागद्वेष का परित्याग, प्रमाद का परित्याग, विवेक का प्रस्फुरण, संवेग और निर्वेद आदि के द्वारा अन्त:करण की शुद्धि नहीं हो जाती, अभाव रहता है तब तक ध्यान करने . में कथमपि समर्थ नहीं हो पाता। 1. ज्ञानार्णव, 3/17-8. 3. वही, 3/21. 2. वही, 3/20. 4. वही, 3/24. 54