________________ पुरुषार्थ चार प्रकार के माने गए हैं और इनमें मोक्ष पुरुषार्थ ही सर्वोच्च पुरुषार्थ है। उसके लिए धर्म पुरुषार्थ की साधना आवश्यक होती है। साधन और साध्य में अविनाभावी सम्बन्ध है। जैसा साधन होगा वैसा ही साध्य प्राप्त होगा। आज भौतिक साधन अपनाने पर ज्यादा बल दिया जा रहा है। फलत: साध्य भी उसी तरह का प्राप्त हो रहा है। जैसे तनाव या समस्या, शारीरिक व्याधि आदि। अत: आज जरूरत इस बात की है कि पुन: आध्यात्मिक साधनों को सम्यक् साधन के रूप में स्वीकार किया जाए। वैदिक एवं श्रमण दोनों ही संस्कृतियों में आत्मा का शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने पर बल दिया गया है और इसकी प्राप्ति हेतु ध्यानाभ्यास को साधन के रूप में अपनाने की बात स्वीकार की गई है। आत्मा का शुद्ध स्वरूप ज्ञानावस्था को माना गया है। अज्ञान की अवस्था विभावावस्था के नाम से जानी जाती है। विभावावस्था विकल्पों के कारण उत्पन्न होती है। उससे नाना प्रकार के दुःख, यथा जन्म-मरण-जरावस्था, रोग, सुख-दुःख, अनिष्ट संयोगादि विभाव, की ही प्राप्ति होती है। यही कारण है कि महर्षि पतंजलि ने इन वैभाविक वृत्तियों से मुक्त होने की अवस्था को योग कहा है।' वस्तुत: ध्यान और योग दोनों अलग-अलग अवधारणाएं नहीं हैं, कारण योगाङ्गों में ध्यान को भी समाविष्ट किया गया है। इनमें अंग और अंगी का सम्बन्ध है। जिस प्रकार हमारे हाथ-पाँव हमारे अंग से अलग भी है और नहीं भी हैं, ऐसा ही सम्बन्ध योग और ध्यान में है। जैन परम्परा में भी सभी प्रकार के विकल्पों से रहित होने की प्रक्रिया को ध्यान कहा गया है। आचार्य उमास्वामी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है - मन के चिन्तन का एक ही वस्तु पर अवस्थान अर्थात् केन्द्रित करना ध्यान है। तात्पर्य यह है कि ध्यान मन की बहुमुखी चिन्तनधारा को एक ही ओर प्रवाहित करता है, जिससे साधक अनेक चित्तता से दूर हटकर एक चित्त में स्थिर होता है। बौद्ध परम्परा में भी ध्यान विषयक अवधारणा के सन्दर्भ में विकल्पों से रहित होने पर बल दिया गया है। समन्तपासादिका में ध्यान के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि - किसी विषय पर चित्त को स्थिर कर चिन्तन करना ही ध्यान है। वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों ही परम्पराओं में ध्यानाभ्यास की विधियों पर पर्याप्त चर्चा मिलती है। प्राय: तीनों परम्पराओं में ध्यान को मोक्ष या कैवल्य प्राप्ति का सबल साधन स्वीकार किया गया है। 1. अर्हत्वचन, जनवरी 1957, पृ. 18. 2. तत्त्वार्थसूत्र 9/27. 3.समन्तपासादिका, भाग 1, पृ. 145-6. 53