________________ . तृतीय अध्याय ध्यान का विवेचन एवं महत्व भारतीय जीवन का दृष्टिकोण अध्यात्म प्रधान रहा है। वैदिक परम्परा हो या श्रमण संस्कृति प्रत्येक ने आध्यात्मिक अनुभूति को सर्वोच्च महत्ता प्रदान की है। आध्यात्मिक अनुभूति का चिन्तन और मनन ही नहीं, बल्कि उसकी प्राप्ति का उपाय भी निर्दिष्ट किया गया है। यह सर्वसम्मत तथ्य है कि बाह्य शक्त्याश्रित मानव अखण्ड सुख एवं शान्ति प्राप्त करने में सर्वथा असमर्थ रहा है। अखण्ड रसानुभूति के लिए अन्तर्मुखी होकर सत्य का साक्षात्कार करना परमावश्यक है। आचार्य श्री शुभचन्द्र ने ध्यान के प्रकरण को आरम्भ करते हुए मनुष्य पर्याय की दुर्लभता का कथन करते हुए कहा है कि - "दु:ख से नष्ट होने वाले इस निकृष्ट अनादि संसार में प्राणियों को संयम एवं तप आदि अनेक गुणों को प्राप्त कराने वाली मनुष्य पर्याय ही दुर्लभ है।" चूंकि पूर्ण संयम एवं तप की प्राप्ति मनुष्य पर्याय में ही होती है, अन्य भवों में नहीं। आगे सम्बोधित करते हुए वे लिखते हैं - 'हे भव्यो ! यदि वह काकतालीय न्याय से तुझे प्राप्त हो गई है तो तुम आत्मा में आत्मा का निश्चय करके शरीरादि बाह्य पदार्थों से उसकी भिन्नता का निश्चय करके उसे सफल कर लो।'' अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई कौआ ताल वृक्ष के नीचे से उड़ता हआ जा रहा हो और उसी समय अकस्मात् उसका फल टूटकर नीचे गिरे व कौआ उसे चोंच में पकड़ ले, यह सुयोग कदाचित् ही प्राप्त होता है, उसी प्रकार मनुष्य पर्याय के प्राप्त हो जाने पर भी लम्बी आयु आदि रूप उक्त सबके प्राप्त हो जाने पर भी यदि प्राणी आत्महित में नहीं प्रवृत्त होता है तो यह उसका दुर्भाग्य ही समझना चाहिए। मनुष्य पर्याय पाने के फल का निर्देश करते हुए लिखा है कि - "किन्हीं महर्षियों ने उस मनुष्य पर्याय का फल पुरुषार्थ बतलाया है। और वह धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के भेद से चार प्रकार का है। इन चारों पुरुषार्थों में से पहले के तीन पुरुषार्थ नाश सहित और संसार के रोगों से दूषित हैं ऐसा जानकर तत्त्वों के जानने वाले ज्ञानी पुरुष अन्त के परम पुरुषार्थ अर्थात् मोक्ष का साधन करने में ही प्रयत्न करते हैं, क्योंकि मोक्ष ही अविनाशी है।' भारतीय अध्यात्म विद्या चाहे वह वैदिक हो या श्रमण, दोनों ने ही एक स्वर से दुःख मुक्ति का समर्थन किया हैं। दु:ख मुक्ति के लिए पुरुषार्थ पर बल दिया गया है। 1. ज्ञानार्णव, 3/1. 2. वही, 3/2. 3. ज्ञानार्णव, 3/3.