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________________ उनकी अन्य अभिव्यंजना की भंगिमाएँ भी सहज हैं / सन्तों ने कहीं पर भी सायास , अभिव्यक्ति उपादानों का प्रयोग नहीं किया है। अभिव्यक्ति से सारे माध्यम लोक और वह भी सहज-सामान्य ग्राम्य लोक से संगृहीत किए गए हैं। सन्तों का अप्रस्तुत विधान और प्रतीक-योजना सीधे लोक-जीवन और लोकज्ञान से अनुप्राणित है।'' यही कारण है कि जहाँ आचार्य शुभचन्द्र की अभिव्यक्ति सामान्यजन के बहुपयोगी है वहीं उसमें योग विषयक विपुल सामग्री प्राप्ति होती है। ___ आज नैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक आदि मूल्यों के विघटन के इस दौर में आचार्य शुभचन्द्र की रचना बहुत मूल्यवान् है / क्योंकि आज वैज्ञानिक एवं औद्योगिक क्रांति ने मानव के न केवल भौतिक उत्पादन एवं साधनों को बदल दिया है। त उसकी मानसिक प्रवत्तियों को भी परिवर्तित कर दिया है। और मानसिक प्रवत्तियों के उद्वेलन को शान्त करने के लिए योग और ध्यान से बढ़कर और क्या प्रक्रिया हो सकती है। आचार्य शुभचन्द्र ने यौगिक क्रियाओं का वर्णन अत्यन्त वैज्ञानिक ढंग से किया है। जैनदर्शन में आन्तरिक तप के रूप में ध्यान का स्थान सर्वोपरि है। आज योग का एक लक्ष्य चित्त की चंचलता को नियंत्रित करना है। ध्यान, धारणा और समाधि योग के अन्तरंग साधन हैं। आसन, यम, नियम और प्रत्याहार योग के बहिरंग साधन हैं। इनमें जैन परम्परा की यह विशेषता है कि वह यमों पर अन्य सभी परम्पराओं की अपेक्षा अधिक बल देती है। अतएव जैन योग अहिंसा, अपरिग्रह आदि पर बल देने के कारण व्यावहारिक जीवन की शुद्धता को योग के लिए अनिवार्य मानता है। इस पृष्ठभूमि में ध्यान तथा योग का जो विस्तार जैन परम्परा में हुआ उसका ज्ञानार्णव को आधार बनाकर शोध ग्रन्थ प्रस्तुत करना उसकी विशिष्टता को दर्शित करता है। आचार्य शुभचन्द्र का अपना वैशिष्ट्य है कि वे प्रखर तत्त्वज्ञानी थे, महान् साधक थे और साथ-ही-साथ कवित्व प्रतिभा के धनी थे। उनके द्वारा रचित 'ज्ञानार्णव' एक ऐसा महान् ग्रन्थ है, जिसमें दर्शन, योग और काव्य तीनों की बड़ी हृद्य समन्विति है। जहाँ इस ग्रन्थ में दर्शन के योग्य सामग्री उपलब्ध होती है, वहीं साहित्यिक दृष्टि से भी इसका अपना अलग महत्त्व है। चाहे, छन्द, अलंकार, रस की बात हो ज्ञानार्णव में सभी कुछ विद्यमान है। आचार्य शुभचन्द्र ने अपने ग्रन्थ में आर्हत दर्शन स्वीकृत आत्माभ्युदयमूलक उपक्रमों को योग के ढाँचे में ढालकर काव्यात्मक शैली में उपस्थापित करने में जो उद्यम किया है वह स्तुत्य है। भारतीय इतिहास की परम्परा में ऐसे अनेक मनीषियों के उल्लेख हैं जिनके परिचय के नाम पर आज तक समृद्धि एवं विकास के बावजूद भी दो शब्द तक उपलब्ध नहीं हैं। किन्तु उसके अभाव में भी यहाँ की परम्परा निष्प्रभ नहीं होती। चूंकि ये ऐसे आभावन्त 1. सन्तों की सांस्कृतिक संसृति, पृ. 364. 50
SR No.004283
Book TitleBhartiya Yog Parampara aur Gnanarnav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendra Jain
PublisherDigambar Jain Trishala Mahila Mandal
Publication Year2004
Total Pages286
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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